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________________ खरतरगच्छ की गौरवमयी परम्परा में अनेकानेक राष्ट्र-सन्त हुए हैं, जिन्होंने अपने ज्ञानबल, योगबल एवं तपोबल के प्रभाव से मानवीय भावनाओं को प्रसारित करते हुए जैनधर्म की महती प्रभावना की । इतिहास इस बात का साक्षी है कि यह परम्परा विश्व बन्धुत्व एवं जैनत्व की गरिमा को प्रतिष्ठित करने के लिए सर्वदा प्रयत्नशील रही है । समाज में सच्चरित्रता और एकता के उन्नयन में इस गच्छ के महापुरुषों का अनुदान एक ऐतिहासिक प्रतिष्ठा है । इस खण्ड में हम उन आदर्श - पुरुषों का सिलसिलेवार अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे, जिनका सम्बन्ध खरतरगच्छ के आदिकाल से है | आदिकाल में हमने वह समय स्वीकार किया है, जिसमें खरतरगच्छाचार्यों ने क्रान्ति के स्वर गुंजाये । यह समय विक्रम की ग्यारहवीं शदी से तेरहवीं शदी तक है । खरतरगच्छ के आदिकाल में हुए आचार्यों, साधुओं एवं श्रावकों ने जैन धर्म संघ को धार्मिक समस्याओं से उन्मुक्ति दिलाने का अथक प्रयास किया और निःसन्देह उन्हें आशातीत एवं उच्चस्तरीय सफलता प्राप्त हुई । संघ उनका राशि राशि ऋणी रहेगा । खरतरगच्छ की गुरु-परम्परा वि० सं० १३०५ में रचित 'युगप्रधानाचार्य - गुर्वावली' में उपाध्याय जिनपाल ने खरतरगच्छ की गुरु परम्परा आचार्य वर्धमानसूर और आचार्य जिनेश्वरसूरि से मानी है । खरतरगच्छ के आदि प्रवर्तक आचार्य जिनेश्वरसूरि हैं। उनके गुरु आचार्य वर्धमानसूरि थे । अतः हम प्रस्तुत अध्ययन - क्रम में जिनेश्वरसूरि से पूर्व आचार्य वर्धमानसूरि के इतिहास पर भी एक विहंगम दृष्टि डालेंगे। वैसे खरतरगच्छ के प्रथम गुरु जिनेश्वर ही हुए, किन्तु उनसे पूर्व गुरु-परम्परा के आदिस्रोत आचार्य सुधर्मा स्वामी हैं। संक्षेप में खरतरगच्छ की आदि गुरु-परम्परा इस प्रकार हैं ८१
SR No.023258
Book TitleKhartar Gachha Ka Aadikalin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shree Jain S Khartar Gachha Mahasangh
Publication Year1990
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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