SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जब कुमार पार्श्व को इस सैन्य-सज्जा और रण-प्रयाण की सूचना मिलती है, तब वे स्वयं पिता के समक्ष उपस्थित होते हैं और अपनी शक्ति एवं रणक्षमता का परिचय देते हुए अपने पिता से अनरोध करते हैं कि “मैं अकेला ही युद्ध में जा सकता हूँ। मेरे रहते हुए आपको युद्ध में जाने की क्या आवश्यकता? कुमार पार्श्व युद्ध में जाकर अपूर्व वीरता का प्रदर्शन करते हैं और पराक्रमी यवनराज को बुरी तरह परास्त कर विजयी बनते हैं। मामा रविकीर्ति पार्श्व की इस वीरता से प्रसन्न हो जाता है और अपनी पुत्री प्रभावती के साथ विवाह करने के लिये कुमार पार्श्व से आग्रह करता है। उक्त सन्दर्भांश द्वारा नायक के अन्तर्द्वन्द्व का सुन्दर उद्घाटन हुआ है। इसे कवि ने दो स्थलों में निर्दिष्ट किया है। प्रथमांश वह है, जब पिता युद्ध के लिए प्रस्थान करने की तैयारी करते हैं। लोक-मर्यादा-रक्षक पुत्र (पार्श्व) इसे अपनी वीरता के लिये चुनौती समझता है। अतः वह पिता को रोक कर युद्ध-क्षेत्र में स्वयं के प्रस्थान करने की अनुमति माँगता है। इधर पुत्र-वात्सल्य-विभोर पिता अपने पुत्र को युद्ध में जाने देना नहीं चाहता। बुध श्रीधर ने इसी अन्तर्द्वन्द्व का सुन्दर चित्रण किया है। दूसरा अन्तर्द्वन्द्व रविकीर्ति द्वारा प्रभावती के साथ पाणिग्रहण करने की प्रार्थना के अवसर का है। अनिन्द्य लावण्यवती चन्द्रवदनी प्रभावती का सौन्दर्य युवक-पार्श्व को अपनी ओर आकृष्ट करना चाहता है, पर जनता-जनार्दन का कल्याण करने के लिये कटिबद्ध पार्श्व के अन्तस में एक क्षण पर्यन्त अन्तर्द्वन्द्व के पश्चात् ही ज्ञानरश्मि प्रस्फुटित हो जाती है और वे संकेत द्वारा ही अपनी हृदगत् भावनाओं को निवेदित कर देते हैं। उक्त प्रसंग उपस्थित कर बुध श्रीधर ने वस्तुतः इस मर्मस्पर्शी संदर्भाश का नियोजन कर नायक के चरित को उदात्त तो बनाया ही, साथ ही कथावस्तु को रसप्लावित भी किया है। (2) दूसरा मर्मस्थल वह है जब पार्श्वनाथ अपने मामा रविकीर्ति के साथ तापस के दर्शनार्थ वन में पहुँचते हैं। उस तापस को पंचाग्नि तप करते हुए देख कर तथा काष्ठ में नाग-नागिनी को अपने ज्ञानबल से शीघ्र ही दग्ध होने वाला जानकर वे तापस से कहते हैं कि अज्ञानपूर्वक किया गया तप कर्मक्षय का हेतु नहीं होता। पार्श्व के उक्त वचनों को सुनकर तापस (कमठ) अत्यन्त क्रोधित होकर कहता है कि इस तप को तुम क्यों अज्ञानपूर्वक कह रहे हो ? नाग-नागिनी कहाँ जल रहे हैं ? प्रत्यक्ष रूप से उन्हें दिखलाओ। यह सुन पार्श्व ने कहा कि जो लकड़ी पंचाग्नि में जल रही है, उसी को काट कर देखो, उसमें जलते हुए नाग-नागिनी दिखलाई पड़ जावेंगे। यह नाग पूर्व-जन्म का तुम्हारा रूप भी था । पार्श्व के उक्त वचनानुसार वह अर्द्धदग्ध-काष्ठ तीक्ष्ण-कुठार से काटा जाता है और उसमें से छिन्न-भिन्न रक्त में सने हुए नाग-नागिनी निकल पड़ते हैं । मरणासन्न देखकर करुणावतार पार्श्व द्रवित हो उन्हें नमस्कार-मन्त्र सुनाते हैं, जिसके प्रभाव से वे मर कर धरणेन्द्र एवं पद्मावती के रूप में उत्पन्न होते हैं। पासणाह. 3/15 पासणाह. 3/17 पासणाह. 6/6 पासणाह. 3/13-14 पासणाह. 6/10/5-15 पासणाह. 6/9/3-4 पासणाह. 6/10/2 पासणाह. 6/10/7-8 6. 8. 48 :: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy