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________________ 5 10 11/4 The figurative description of Podanpuri town. तहिँ वसइ सुर- खयर-णरणाह मणहारि कवि कवि अहिलसइ परणारि हुँदाइँ अणवरउ दीवंति हँपवर तूराण-रावा समुति जहिँ कणय-कलसाइँ घर - सिहरि सोहंति जहिँ चंद-रविकंत-मणि तिमिरु णासंति हिँ विविह देसागया-लोय दीसंति हँ भवि जि - पाय-पंकय समच्चंति जहि चारणाणेयमुणिणाहविंदाइँ विरयंति धम्मोवएस गहीराइँ णामेण सिरि पोयणउरु रमहारि ।। जहिँ चोर ण मुसंति पहवंति जहिँ णारि ।। महिस- सारं गच्छेलइँ ण दीयंति ।। जहिँ रयण-संजडिय जिणहर ण णिट्ठति । । जहिँ धयवडाडोउ रवि-रइँ रोहंति ।। जहिँ मत्त विरसंत वारण विहासंति ।। तुर तुंगंग हिंसंति-सीसंति ।। जहिँ पंगणे - पंगणे णारि णच्चति ।। संबोहियासेस भवियारविंदाइँ ।। .वाणी सिसिस्तणिज्जिय समीराइँ ।। घत्ता जहिँ सासपसाहिय असमरसाहिय जणवय-णयण-सुहावण । बहुवि वेसायण सुरकप्पायण बहु वाणिय णाणावण ।। 188 ।। 11/4 पोदनपुरी नगरी की समृद्धि का वर्णन - उसी देश में लक्ष्मी के घर के समान तथा देवों, खेचरों तथा नरनाथों के मन का हरण करने वाली पोदनपुरी नामकी सुन्दर नगरी है। जहाँ कोई भी परनारी को प्राप्त करने की अभिलाषा तक नहीं करता, जहाँ चोर चोरियाँ नहीं करते, जहाँ शत्रु गण अप्रभावी सिद्ध होते हैं, जहाँ मुनिवरों को अनवरत दानादि दिये जाते रहते हैं, जहाँ भैंसे, सारंग (मृग) और बकरे आदि की बलि नहीं दी जाती, जहाँ निरन्तर ही तूर वाद्यों की मधुर ध्वनि उठती रहती है, जहाँ रत्न-जड़ित जिन-मन्दिरों का निर्माण कभी रुकता नहीं, जहाँ के गृह - शिखर स्वर्ण कलशों से सुशोभित रहते हैं और ध्वजा-पताकाएँ रवि - किरणों को अवरुद्ध करती रहती हैं, जहाँ चन्द्रकान्त एवं सूर्यकान्त मणि अन्धकार को नष्ट करते रहते हैं और जहाँ चिंघाड़ते हुए मदोन्मत्त हाथी सुशोभित रहते हैं। 220 :: पासणाहचरिउ जिस नगरी में विविध प्रकार के देशों के लोग आते-जाते दिखाई देते रहते हैं, जहाँ उत्तुंग घोड़े हींसते हिनहिनाते तथा फुरकते रहते हैं, जहाँ भविक जन जिनेन्द्र के चरण-कमलों की पूजा-अर्चना करते रहते हैं, जहाँ घरों के आंगनों में नारियाँ नृत्य करती रहती हैं, जहाँ भव्य-कमलों को सम्बोधित करने वाले चारण आदि अनेक मुनिवरों के समूह अपनी शिशिरता से पवन को जीतने वाली गम्भीर वाणी द्वारा निरन्तर धर्मोपदेश करते रहते हैं । धत्ता- जहाँ विविध प्रकार के शस्य-धान्यों से प्रसाधित, असाधारण रसों के धनी, जनपद के लोगों के नेत्रों को अत्यन्त सुहावनी लगने वाली सुरांगनाओं के समान वेश्याजनों से युक्त और नाना प्रकार की देवोपम वनियों (व्यापारियों) की विविध प्रकार की दुकानें हैं ।। 188 ।।
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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