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________________ 10/15 Bad consequences of wrong belief, knowledge and conduct. महमोहोदय कम्महो वसेण कहियंतु वि जिणवर तणउ धम्म जिह वण्ण-रूअ-भेयइँ ण णेइ तिह मिच्छंधउ जिणणाह धम्म जिह रयणभूमि पत्तो वि कोवि तिहँ कम्मभूमि पत्तो वि संतु कहियंतु वि वर उवएस-मग्गु भव्वेयर हियइ ण ठाइ केम उइए वि णाणकिरणहिँ समिद्धि किं वप्प दूर भवियारबिंदु तह पुणु लोइय धम्महो रसेण।। पडिवज्जइ जीउ ण दिण्ण सम्मु।। जच्चंधु वि कहियाइ वि ण णेइ।। तियरणहिँ समज्जइ असुह कम्मु ।। णरु ण मणइ रयण-विसेस तोवि।। मिल्लइ जिणवर-उवएसु जंतु।। णाणा पयार हेउहिँ समग्गु ।। णव-णलिणी-दल जलबिंदु जेम।। जिणवर दिणयरि जण-मण-समिद्धि ।। वियसइ भमंत पावालिबिंदु ।। घत्ता- चउवग्गहँ ससमग्गहँ मज्झि जेण पावेज्जउ। जं तं पइँ धरणीवइ परणिमित्तु जाणेव्वउ ।। 180 ।। 10/15 मिथ्यात्व की तीव्रतामहामोहनीय कर्मोदय के वश से तथा लौकिक धर्मों के रस के अनुरागी होने के कारण जिनवर कथित धर्म के कहे जाने पर भी यह जीव सम्यक्त्व धर्म को स्वीकार नहीं कर पाता। जिस प्रकार जन्मान्ध व्यक्ति वर्ण एवं रूप के भेद नहीं जान पाता, बताये जाने पर भी वह उस उपदेश को नहीं मानता। उसी प्रकार मिथ्यात्व से अन्धा पुरुष जिननाथ कथित धर्म को न तो स्वयं ही जानता है और न वह उपदेश से ही मानता है। इस कारण वह त्रिकरण-कृत, कारित एवं अनुमोदना से अशुभ कर्मों का उपार्जन करता रहता है। जिस प्रकार रत्नगर्भा-भूमि में पहुँचा हुआ कोई (सामान्य) व्यक्ति रत्न-विशेष को नहीं समझ पाता, वैसे ही कर्मभूमि में प्राप्त होकर भी प्राणी जिनवर कथित उपदेश को (समझ नहीं पाने के कारण) छोड़ देता है। जिस प्रकार कमलिनी के नवीन पत्ते पर जल-बिन्दु नहीं ठहरता, उसी प्रकार भव्येतर-अभव्य के हृदय में भी नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा सम्पुष्ट समग्र उत्तम उपदेश का मार्ग भी स्थिर नहीं हो पाता। ज्ञान-किरणों से समृद्ध मनुष्यों के मन में तेज उत्पन्न करने वाले जिनवर रूपी दिनकर के उदित होने पर भी हे भद्र, जिस पर पाप रूपी भौंरे मंडराते रहते हैं, ऐसा दूर स्थित भव्य कमल भी कैसे विकसित हो सकता है? घत्ता- हे धरणीपति, मैं तुम्हें अब उन चार समग्र वर्गों (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) के विषय में बतलाता हूँ, जिनके द्वारा उपदेश प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु इसे भी तुम पर-निमित्त मात्र जानो।। 180 || पासणाहचरिउ :: 211
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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