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________________ 10/10 The King inquisitively asks questions on different elements. (Tattwas, i.g. living beings, non-living etc.) एत्थंतरि पुच्छिउ अरुहणाहु वज्जरइ विणिज्जिय मयण-दाहु।। दोविह हवंति असुहर सकोह संसारिय सिद्ध पसिद्ध बोह।। णिक्किट्ठ-दुट्ठ-कम्मट्ठ-मक्क । ते भणिय सिद्ध जे.सिद्धि-दुक्क।। संसारिय पुणु दुविहा हवंति बहु दुक्ख-मरिय चउगइ भवंति।। थावर जंगम भेएण जाणि णिम्मल-बुद्धिए मणि-मंति माणि।। एइदियाइँ थावराइँ थंति बे-इंदिय पउ जंगम चलंति।। ते पुणु दुविह जाणिय जिणेण सयलवि अभव्य भव्वत्तणेण ।। सिज्झंति होति जे जीव भव्व सिझंति कयावि ण पुणु अभव्व।। संसारिय असुहर बहुविहेसु जोशीसु भमति महादुहेसु।। जिह णडु अण्णण्ण पविहिय पजोउ णवरस-पओय विभविय लोउ।। घत्ता- तिह लिंतइँ मिल्लतइँ पुग्गलाइँ जीव वि णिरु।। संसारए णीसारए असुहकम्म पेरिय चिरु।। 175।। 10/10 राजा प्रभंजन जीवादि-तत्त्वों की जानकारी हेतु पार्श्व से प्रश्न पूछता हैइसी बीच उस राजा प्रभंजन ने उन अरिहन्तनाथ से जिज्ञासावश जीवादि-तत्त्वों सम्बन्धी प्रश्न पूछा- तब काम की दाह को जीतने वाले वे प्रभु बोले- असुहर (प्राणी) दो प्रकार के हैं— (1) क्रोध सहित संसारी जीव और (2) प्रसिद्ध बोधपूर्ण सिद्ध अर्थात् पूर्ण ज्ञानी जीव। निकृष्ट दुष्ट अष्टकर्मों से मुक्त सिद्धि में जो प्रविष्ट हैं, उन्हें सिद्ध जीव कहते हैं, और जो विविध दुःखों से व्याप्त चारों गतियों में भटकते फिरते हैं उन्हें संसारी जीव कहते हैं। वे भी दो प्रकार के हैं— स्थावर और जंगम (त्रस) रूप भेद से जानना चाहिए। निर्मल बुद्धि से जानकर मन की भ्रान्ति को मिटाओ। एकेन्द्रिय (स्पर्शन वाले) स्थावर जीव हैं। दोइंद्रियादि जो पैरों (पउ) से चलते है, सो जंगम जानों। जिनेन्द्र ने वे सब भी दो प्रकार के बताये हैं। सभी संसारी जीव अभव्य एवं भव्य रूप से दो प्रकार के हैं। जो सिद्धपने को प्राप्त होते है, वे भव्यजीव है, जो कभी सिद्ध नहीं होंगे, उन्हें अभव्य जानों।। संसारी-प्राणी महादुःखों से भरी अनेक प्रकार की योनियों में उसी प्रकार भ्रमण करते है, जिस प्रकार अन्य-अन्य प्रयोगों से प्रेरित नट नवरसों के प्रबोध से लोकों को आश्चर्य में डालता है। घत्ता- यह जीव भी निश्चित रूप से इस निस्सार संसार में अनादिकाल से पुद्गलादि अशुभ कर्मों से प्रेरित होकर अनेक लोकों को ग्रहण करता और छोड़ता रहता है।। 175 || 206 :: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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