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________________ 3/8 King Hayasen rebukes like anything the foolish proposal made by Yavanrāja. He challenges him in thundering voice and orders to his Military Generals to make necessary war-preparations. किं बहुएण पयंपिय वयण बारबार परिपीडियवयण।। जइ समरंगणि णिय सामंतहिँ परए ण जाएवि सहु सामंतहिँ।। महधयवडु वोमयले लुलावेवि पवर तुरंगम वग्ग चलावेवि।। मत्तमयंगमघड पेल्लादेवि अमरिस वस-पर-णर बोल्लावेवि।। खय-दिणयर कर भासुरु खंडउ कट्टेविणु अरियण सिर खंडउ।। जउण-णराहिव माणु मलेप्पिणु अरि-भय-गल-घड समुहु वलेप्पिणु।। कुइय कियंतु व आगउ संघारमि ताणिच्छउ णियणामु जि हारमि।। जा हयसेणु पइज्जारूढउ णीसेसावणि मंडले रूढउ।। णव-पाउस जीमूय-महासणु लहु मुअंतु उद्विउ सिंहासणु।। ता उहिउ समूहु मंडलियहँ एक्कमेक्क मिलियहँ मंडलियहँ।। घत्ता- णवकुसुम पयरु पयरुहहिँ दरमलंतु अमरिसमरिउ । तुटुंत हार कंकण मउडु णिव अत्थाणहो णीसरिउ ।। 47 || 3/8 राजा हयसेन यवनराज के प्रस्ताव की तीव्र भर्त्सना कर रण-प्रयाण की तैयारी करते हैं (दूत के वचनों को सुनकर राजा हयसेन ने भर्त्सना करते हुए पुनः कहा-) मुख को पीड़ा देने वाले वचनों के बार-बार बोलने से क्या लाभ? यदि समरांगण में हमारे प्रिय सामन्तों के द्वारा वह यवनराज अपने सामन्तों के साथ प्रलय (मरण) को प्राप्त न हो जाये, उसके महाध्वजपट को यदि मैं व्योमतल में ही लुंजपुंज न कर डालूँ, उसके प्रवरकोटि के घोडों को पीछे की ओर न चला डालँ. मत्त-मातंगों के समह को यदि न पेल डालँ. क्रोधावेश में आकर यदि शत्रु समूह का हाँका न करा डालूँ, क्षयकालीन सूर्य-किरणों के समान भास्वर रंग वाली शत्रुओं की खड्गों को तथा अरिजनों के सिरों को खण्ड-खण्ड न कर डालूँ, यवन-नराधिप के मान का मर्दन न कर डालूँ, शत्रुओं के मदोन्मत हाथियों को मुँह के बल चक्कर न कटवा दूँ और युद्धक्षेत्र में यदि मैं उसके लिये कुपित कृतान्त के समान युद्धभूमि में आये हुए शत्रुबल का संहार न कर डालूँ तो निश्चय ही मैं अपना (हयसेन यह) नाम हार जाऊँगा। समस्त पृथिवी-मण्डल में विख्यात राजा हयसेन जब इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके सन्नद्ध हुए और नवीन प्रावृष (वर्षाकाल) की मेघ घटा के समान महागर्जना करते हुए झटके के साथ सिंहासन छोड़कर उठे तभी परस्पर में एकदूसरे से मिलते हुए तथा एक दूसरे से धक्का-मुक्की करते हुए माण्डलिकों का समूह भी उठ खड़ा हुआ। घत्ता--- नव पुष्प-समूह के समान अपने चरण-कमलों से धरती को रौंदते हुए, तीव्र क्रोध से भरे हुए, वेग पूर्वक चलने के का हार, कंकण, मुकट आदि वाले वे राजा हयसेन अपने आस्थान-मण्डप से बाहर निकले। (47) 54:: पासणाहचरिउ
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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