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________________ पडुयर पढंत पाढय जणेहि जिणचरणाराहण कय मणेहि।। आवंते सुरवइणा णहेण दिट्ठउ तारायणु महमहेण।। अह परिवडियउ अविणय वसेण णं तिहुवण णाहहो सरहसेण।। णं तासु जि जस धरणीरुहासु कुसुम पइरु रुइरु सरोरुहासु।। णं णह हरिसंसुअजल कणोहु जिणसंग समुग्गउ भूरि सोहु।। णं दिसणारिए सइँ अग्घवत्तु। उच्चलिउ दरिसिवि रवि-चंदवत्तु ।। णह णील विणिम्मिउ मोत्तिएहि पूरिवि जिणवरहो सुदित्तिएहि। घत्ता- मेरुहि आविवि महि पाविवि वाणारसि पइसेवि। जिण जणणिहिँ हत्थे दाणसमत्थे अप्पेवि जिणु विहसेवि।। 32|| 2/12 Manyfold immotional imaginations occurs in the mind of queen-mother towards her infant. (Jinendra PārŚwa). ण तत्थवि विरएवि उच्छउ पसत्थु हरिसिवि जिण-जणणी-जणणु जाम सुकुसुमु किं णव सुरतरु वरिगु गउ सवइ सग्गु ससुहासि सत्थु।। मायए पेक्खिवि चिंतियउ ताम।। णं ण एइंदिउ कट्ठ कलु।। स्तुति-पाठ कर रहे थे। जिनचरणों की आराधना में मन लगाने वाले देवों के साथ आकाश मार्ग से सुरपति आ रहा था। उसने उस महोत्सव से आते समय मार्ग में तारा-समूह देखा। वे (तारे-) ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानों वे मनोहर पुष्प-समूह ही हों अथवा मानों स्वयं आकाश ने आनन्दित होकर अपने हर्षाश्रु रूपी जल-कण ही प्रवाहित किये हों। शिशु-जिनेन्द्र के संग के कारण उस आकाश की शोभा भी बढ़ गई थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानों दिशा रूपी नारी ने स्वयं ही (द्वितीया के-) चन्द्र समान वृत्त अर्घ्य-पात्र उठाकर दिखलाया हो। सूर्य एवं चन्द्र के समान मुख वाले शिशु-जिनेन्द्र के मुख का दर्शन करता हुआ जब इन्द्र नीचे आया, तब जिनवर की दीप्त आभा-प्रपूरितनभ ऐसा लग रहा था, मानों मोतियों ने उसे (नभ को) नीलाभ कर दिया हो। घत्ता- सुमेरु पर्वत से आकर, पृथिवी तल पर उतरकर, उस (इन्द्र) ने वाणारसी नगरी में प्रवेश किया और दान देने में समर्थ उस शिशु-जिनेन्द्र को विहँसते हुए जिनेन्द्र-माता के हाथों में सौंप दिया। (32) 2/12 . शिशु – जिनेन्द्र (पार्व) के प्रति उसकी जननी की भावभरित कल्पनाएँवहाँ (वाणारसी में) में प्रशस्त उत्सव करके वह शक्र सुधाशी (अमृत-भोजी देवों) के साथ स्वर्ग को चला गया। उस जिनेन्द्र को देखकर माता-पिता भी हर्षित हुए। माता ने (पुत्र को) देखकर चितवन किया कि (यह बालक) क्या पुष्प सहित उत्तम कोटि का बाल-कल्पवृक्ष है? किन्तु नहीं-नहीं, वह कल्पवृक्ष तो एकेन्द्रिय एवं कठोर काष्ठ मात्र ही होता है (जब कि यह बालक तो पंचेन्द्रिय है, अतः वह कल्पवृक्ष नहीं हो सकता)। (तब फिर-) क्या यह (बालक) कला-कलाप वाला पूर्णचन्द्र ही है? किन्तु, नहीं-नहीं, वह बालक तो पूर्ण चन्द्र भी पासणाहचरिउ :: 37
SR No.023248
Book TitlePasnah Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2006
Total Pages406
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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