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________________ साहित्य समाज और जैन संस्कृत महाकाव्य ४६ तथा पूरक परिस्थितियों के उद्घाटनार्थ शोध ग्रन्थ में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । इन जैन पुराणों में जिनसेनकृत 'आदिपुराण' (हवीं शती ई०), गुणभद्रकृत 'उत्तरपुराण' (हवीं शती ई०), हेमचन्द्रकृत 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्य' तथा 'परिशिष्टपर्व' (१२वीं शती ई.) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । इनके अतिरिक्त जैन महाकाव्यों के समकालिक जैन साहित्य की विविध विधाओं के ग्रन्थों को भी संस्कृत जैन महाकाव्यों के स्रोतों की पुष्टि करने अथवा प्रासङ्गिक प्रकाश डालने के लिए यथोचित रूप से प्रयोग में लाया गया है । अधिकांश रूप से शास्त्रीय महाकाव्य लक्षणों को चरितार्थ करने वाले उपर्युक्त सोलह जैन संस्कृत महाकाव्यों का सम्बन्ध गुजरात, राजस्थान तथा कर्नाटकादि प्रदेशों से है किन्तु इन महाकाव्यों के लेखक प्रायः जैन धर्म के प्राचार्य भी होते थे तथा जैन धर्म की किसी शाखा विशेष से इनका सम्बन्ध रहता था। इस कारण शाखा गत परम्पराओं का पालन करते हुए ही संस्कृत जैन कवियों ने महाकाव्यों की रचना की है । ये प्राचार्य देश-देशान्तरों में जाकर धार्मिक उपदेश भी देते थे, इस कारण विभिन्न प्रदेशों के वृत्तान्तों एवं अनुभवों का महाकाव्यों की वर्ण्य विषय-वस्तु पर प्रभाव पड़ना भी स्वाभाविक प्रतीत होता है। परिणामत: भौगोलिक विभाजन की रेखानों में बाँधकर किसी एक महाकाव्य की सामाजिक परिस्थिति को किसी प्रान्त विशेष से सम्बद्ध कर देना व्यावहारिक रूप से समीचीन जान नहीं पड़ता। किन्तु ऐतिहासिक तथा अभिलेखादि साक्ष्यों द्वारा यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि किसी व्यवस्था विशेष, की सामाजिक पृष्ठभूमि कितनी समसामयिक है तथा उसका महाकाव्यों में वरिणत गतिविधियों से कितना सम्बन्ध हो सकता है। शोधग्रन्थ में विवेचित किसी परिस्थिति विशेष विशेषकर राजनैतिक एवं प्रशासनिक महत्त्व के वर्णनों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का मूल्यांकन करने के प्रयोजन से तत्कालीन अभिलेखीय एवं ऐतिहासिक साक्ष्यों से भी सहायता ली गई है। अधिकांश महाकाव्य सांस्कृतिक चेतना से प्रभावित होकर वस्तु वर्णन में प्रवृत्त हुए है जिनकी ऐतिहासिकता किसी स्तर पर सन्देहास्पद भी हो जाती है, परन्तु समाजशास्त्रीय दृष्टि से मानवीय इतिहास के इन महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक मूल्यों की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती है। भारतीय जनचेतना के सन्दर्भ में परम्परागत सांस्कृतिक मूल्य भी समसामयिक इतिहास के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते पाए हैं। इस प्रकार इतिहास-निष्ठ और संस्कृति-निष्ठ जैन महाकाव्यों के सामाजिक इतिहास का इसी सन्दर्भ में मूल्यांकन किया जाना चाहिए। जैन संस्कृत महाकाव्यों की सामाजिक परिस्थितियों का सम्बन्ध जैन संस्कृति के किसी समुदाय विशेष से न होकर ८वीं शताब्दी से १४वीं शताब्दी ई० तक के सम्पूर्ण भारतीय जन जीवन के इतिहास से है। धार्मिक परिस्थितियों एवं
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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