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साहित्य समाज और जैन संस्कृत महाकाव्य अलौकिक तत्त्वों को विद्यमानता रही है। जैन संस्कृत महाकाव्यों में नायक की सहायता करने अथवा नायक के समक्ष कठिनाइयां उत्पन्न करने की दृष्टि से ऋषिमुनि, देव तथा अन्य अमानुषिक शक्तियों का चित्रण किया जाता है । इस प्रकार की घटनाओं से कथानक को मोड़ देने अथवा संबहण करने में विशेष सहायता मिलती है । जैन धर्म का प्रचार करना, कथावस्तु को आकर्षक बनाना, नायक के चरित्र का उत्तरोत्तर विकास प्रदर्शित करना, आदि प्रयोजनों की दृष्टि से भी इन अलौकिक तत्त्वों के संयोजन से कथानक विस्तार में सहायता ली गई है।
(ख) प्रवान्तर कथा-महाकाव्य लक्षणों में हेमचन्द्र द्वारा प्रवान्तर कथा की संयोजना पर विशेष बल दिया गया है ।२ स्थान स्थान पर जैन संस्कृत महाकाव्यों में प्राप्त अवान्तर कथा के प्रसङ्ग पहले तो कुछ विचित्र एवं अप्रासङ्गिक से लगते हैं किन्तु बाद में उनका मुख्य कथा से सम्बन्ध स्थापित हो जाने पर कथानक में निरन्तरता आ जाती है। इन अवान्तर कथाओं का मुख्य कथा से ताल-मेल बैठाने का कार्य पुनर्जन्म एवं कर्म सिद्धान्त पर अवलम्बित है ।3 नायक प्रादि का अकस्मात् अपहरण हो जाना अथवा किसी दिव्य पुरुष द्वारा परीक्षा लेना, तदनन्तर महाकाव्य से सम्बन्धित पात्र को उसके पूर्व जन्म की सूचना देना आदि घटनाएं अवान्तर रूप से महाकाव्यों में कौतूहल तत्त्व की अभिवृद्धि के लिए भी पर्याप्त उपादेय सिद्ध हुई हैं।४ सम्भवतः प्राकृत कथा साहित्य एवं बाण की कादम्बरी आदि ग्रन्थों से अवान्तर कथाओं के संयोजन की प्रवृत्ति जैन महाकाव्यों में भी प्रादुर्भूत हुई होगी। इस प्रकार अलौकिक तत्त्व एवं अवान्तर कथाएं भारतीय साहित्य के लोकप्रिय तत्त्व रहे हैं तथा जैन संस्कृत महाकाव्यों तथा जैन कथा साहित्य में इनका चरम विकास हुआ है।
जैन संस्कृत महाकाव्यों का वर्गीकरण
जैन संस्कृत महाकाव्यों के वर्गीकरण की समस्या एक बहुत बड़ी समस्या है। इसके कई कारण हैं—जैसे जैन कवियों द्वारा महाकाव्य की 'पुराण' के रूप में
१. विशेष द्रष्टव्य-चन्द्रप्रभचरित, सर्ग ५ तथा ६, पार्श्वनाथचरित, सर्ग ४ २. पूर्वोक्त, पृ० ४२ ३. पार्श्वनाथचरित, सर्ग-३ ४. चन्द्रप्रभचरित सर्ग, ५, वर्षमानचरित सर्ग, ३-६, तथा तु०
पुराकृतः सम्पदवाप्यते शुभैः कृतानि नो तानि मया भवान्तरे । ततो बभूव च दरिद्रतासुखं यदस्ति वा हेतुकमत्र हेतुमत् ।।
-शान्तिनाथचरित, ६.१५०