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________________ ३८४ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज सात तत्त्वों का विवेचन प्राया है, वे इस प्रकार हैं- ( १ ) जीव (२) श्रजीव ( ३ ) आश्रव ( ४ ) बन्ध ( ५ ) संवर ( ६ ) निर्जरा तथा (७) मोक्ष ।' चन्द्रप्रभ श्रादि महाकाव्यों के अनुसार 'पुण्य' एवं 'पाप' इन दो तत्त्वों को पृथक रूप से स्वीकार कर लेने पर तत्त्वों की संख्या नौ मानी गई है। वस्तुतः शुभकर्मों का बन्ध 'पुण्य' एवं अशुभ कर्मों का बन्ध 'पाप' होता है इस कारण इन दोनों तत्त्वों को 'बन्ध' के अन्तर्गत समाविष्ट करते हुए सात तत्त्वों के निरूपण की परम्परा ही अधिक प्रचलित है । 3 जैन महाकाव्यों के अनुसार इन सात तत्त्वों का विवेचन इस प्रकार किया जा सकता है : १. जीव जीव का साधारण लक्षण है – 'उपयोगमयता' जो दो प्रकार से घटित होती है - १. दर्शनोपयोग से तथा २. ज्ञानोपयोग से । इसी कारण जीव समस्त पदार्थों को ग्रहण करता है । नेमिनिर्वाण' तथा चन्द्रप्रभ श्रादि महाकाव्यों में जीव को चेतनामय मानते हुये उसे कर्मों का कर्ता-भोक्ता स्वीकार किया गया है । शरीरधारी होने से उसमें उत्पत्ति तथा विनाश आदि विशेषताएं भी होती हैं । धर्मशर्माभ्युदय में जीव की बहुविध प्रवृत्तियों को समेटते हुये उसका सन्तुलित एवं सारगर्भित लक्षण देने का प्रयास किया गया है और कहा गया है कि जो 'अमूर्तिक, चेतनालक्षण से युक्त, कर्त्ता और भोक्ता, शरीरधारी, ऊर्ध्वगामी तथा उत्पाद - १. वराङ्ग०, २६.१-३६, चन्द्र०, १८.१-१३२; धर्म०, २१.८-१२२; नेमि०, १५.५१-७६; वर्ध०, सर्ग १५ तथा तु० जीवाजीवाश्रवा बन्धसंवरावथ निर्जरा । मोक्षश्चेति जिनेन्द्राणां सप्ततत्त्वानि शासने । चन्द्र०, १५८.२ २. चन्द्र०, १५.३, धर्म०, २१.६ ३. बन्धान्तर्भाविनोः पुण्यपापयोः पृथगुक्तिः । पदार्था नव जायन्ते तान्येव भुवनत्रये ॥ - धर्म०, २१.१६, तथा चन्द्र०, १८.३ ४. उपयोगलक्षरणा जीवा उपयोगो द्विधा स्मृतः । ज्ञानेन दर्शनेनापि यदर्थग्रहणं हि सः ॥ - वराङ्ग०, २६.६ चेतनालक्षणो जीवः । नेमि०, १५.५२ ५ ६. चेतनालक्षणो जीवः कर्त्ताभोक्ता स्वकर्मणाम् । - चन्द्र०, १८.४
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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