SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 416
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८२ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज तीसरा केवलज्ञान विश्व के समस्त पदार्थों के ज्ञान से समन्वित रहता है।' परोक्ष के भी दो परम्परागत भेद किए गए हैं-(१) मतिज्ञान तथा (२) श्रुतज्ञान । मतिज्ञान अनेक भेदों में विभक्त है किन्तु श्रुतज्ञान के दो भेद बताए गए हैं । नयव्यवस्था 'नय' की अनेक अपेक्षानों से परिभाषा की गई है। पालापपद्धति के अनुसार नाना स्वभावों से हटाकर वस्तु को एक स्वभाव की ओर ले जाना 'नय' कहा गया है तो वस्तु की एकदेश परीक्षा भी नय का लक्षण स्वीकारा गया है। सन्मतितर्क के अनुसार जितने वचन-भेद संभव हैं उतने हो नयवाद हो सकते हैं । ५ वराङ्गचरितकार ने नयज्ञान को मुख्यतः दो भागों में विभक्त किया है-(१) द्रव्यार्थिक तथा (२) पर्यायाथिक ।६ जैन परम्परा के अनुसार इन दोनों नयों के १. नैगम, २. संग्रह, ३. व्यवहार, ४. ऋजुसूत्र, ५. शब्द, ६. समभिरूढ तथा ७. एवंभूत ये सात भेद किए गए हैं। तदनुरूप नयव्यवस्था का अनुमोदन करते हुए वराङ्गचरितकार ने भी प्रथम तीन को द्रव्याथिक नय तथा अन्तिम चार को पर्यायार्थिक नय का भेद माना है। जटासिंह नन्दि ने इन सात प्रकार के नेगमादि नयों को लौकिक व्यवहार सम्पादन की एक तार्किक व्यवस्था माना है। द्रव्यव्यवस्था द्रव्य का सामान्य लक्षण है—'सत्' । द्रव्य को 'सत' के अतिरिक्त उत्पाद-व्यय तथा ध्रौव्ययुक्त भी माना गया है । १० लोक द्रव्यों का समूह है जो स्वत: सिद्ध माना गया है, कृतक नहीं।'' द्रव्य के छह मुख्य भेद माने जाते हैं-(१) जीव १. वराङ्ग०, २६.४६ २. सप्रभेदा मतिश्चैव द्विविकल्पमपि श्रुतम् । -वही, २६.४६ ३. विशेष द्रष्टव्य-जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग २, पृ० ५१२ ४. वही, पृ० ५१२ ५. सन्मतितर्क, ३.४६ ६. संक्षेपतो नयो द्वौ तु द्रव्यपर्यायसंसृतो।"-वराङ्ग०, २६.४८ ७. वही, २६.५०-५१ ८. तयोर्भदा नया जैन राख्याता नैगमादयः । नीयते यरशेषेण लोकयात्रा विशेषतः ॥ -वही, २६.४६ ६. तत्त्वार्थसूत्र, ५.२६ १०. पंचास्तिकाय, १० ११. जनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग २, पृ० ४५१
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy