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________________ ३८० जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज थे । मद्य, मांस एवं स्त्री व्यभिचार से इन्हें परहेज नहीं था । ऐसा प्रतीत होता है कि सामन्ती भोगविलास एवं ऐश्वर्य सुख के उपभोगपरक मूल्यों से लोकायतिक मनोवृत्ति समाज में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बना चुकी थी। अनेक जैन महाकाव्यों में लोकायतिक जीवन दर्शन का यह पहलू विशेष रूप से अभिव्यञ्जित हुआ है । प्रायः जैन महाकाव्यों ने इस मनोवृत्ति को पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थित कर उसका दार्शनिक शब्दावली में अपलाप किया है, जो इस तथ्य का प्रमाण है कि सांख्य, वेदान्त आदि अन्य प्रास्तिक दर्शनों के समान ये लोकायतिक दर्शन भी अपनी तत्त्वमीमांसा को सामाजिक दृष्टि से लोकप्रिय बनाने में विशेष सफलता प्राप्त कर रहे थे तभी अध्यात्मवादी सभी दर्शनों ने अपने प्रतिद्वन्द्वी अन्य दर्शनों के साथ-साथ लोकायतिक दर्शनों का भी विशेष रूप से खण्डन किया है। जैन संस्कृत महाकाव्यों में भी लोकायतिक दर्शनों की विशेष चर्चा के साथ-साथ उनके खण्डन होने का भी वर्णन मिलता है । सातवी-आठवीं शताब्दी ई० से लेकर उत्तरोत्तर शताब्दियों में आस्तिक दर्शनों के विविध रूपों और विभिन्न देवताओं के नामों पर दार्शनिक सम्प्रदायों के विघटन और उनके ध्रुवीकरण की गतिविधियाँ भी विशेष गतिशील रहीं थीं । इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि जटासिंह नन्दि ने पुरुष, ईश्वर, काल, स्वभाव, देव, ग्रह, नियति आदि सृष्टि विषयक इन अनेक मतों का खण्डन करते हुए उल्लेख किया है तो दूसरी ओर जैन दर्शन की द्रव्य परिभाषा उत्पाद-व्यय तथा प्रोव्य को क्रमश: त्रिपुरुष — ब्रह्मा, शिव तथा विष्णु के प्रतीकात्मक अर्थ के रूप में भी प्रस्तुत किया जाने लगा था । गुणरत्न की टीका के आधार पर भी यह ज्ञात होता है कि ब्रह्मा, शिव, विष्णु आदि के प्रतिरिक्त भी और बहुत से देवों और तत्त्वों को सृष्टि का मूल कारण मानते हुए उनके नाम से अनेक दार्शनिक सम्प्रदायों की दिन १. कापालिका भस्मोद्धूलनपरा योगिनो ब्राह्मणाद्यन्त्यजाश्च केचन नास्तिका भवन्ति । ते च जीवपुण्यपापादिकं न मन्यन्ते । चतुर्भूतात्मकं जगदाचक्षते । ते च मद्यमांसे भुञ्जते मात्राद्यगम्यागमनमपि कुर्वते । ... वर्षे वर्षे कस्मिन्नपि दिवसे सर्वे सम्भूय यथानामनिर्गमं स्त्रीभि रमन्ते । - षड्दर्शनसमुच्चय, ७६ पर गुणरत्न टीका, पृ० ४५०-५१ चन्द्र०, सर्ग २, पद्मा०, सर्ग ३ २. ३. चन्द्र०, २.४६-५६, पद्मा०, ३.१३७-१५५ ४. वराङ्ग०, २६.७२ ५. द्विस०, १२.५० तथा उस पर पदकौमुदी टीका
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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