SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धार्मिक जन-जीवन एवं दार्शनिक मान्यताएं ३६३. गुप्तियां; क्रोध, मान, माया तथा लोभ-चतुर्विध कषायक्षय; जीवादि छह द्रव्य; दशविध-मुनि धर्म आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त, रत्नत्रय का सांगोपांग अध्ययन, पांच महाव्रतों का स्पष्टीकरण, १२ प्रकार के बाह्य तथा प्राभ्यन्तर तप, पाहार, भय, मैथुन तथा परिग्रह-चार संज्ञाओं; स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, तथा श्रोत-पांच करणों; (ईर्ष्या, भाषा, ऐषणा, आदाननिक्षेप, तथा उत्सर्ग-पांच समितियों, सामयिक, चतुर्विशति स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान तथा कायोत्सर्ग-छह आवश्यकों; कृष्ण, नील. कापोत, पीत, पद्म तथा शुक्ल-छह लेश्याओं; शुभ, अशुभ तथा अशुद्ध-तीन योगों का शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करना भी मुनि धर्म की दृष्टि से आवश्यक योग्यता मानी जाती थी। चतुर्विध शब्द-प्रपंच, नैगमादि सप्तविध नय, प्रत्यक्षादि प्रमाण, चौदह प्रकार की मार्गणाएं, पाठ प्रकार के अनुयोग, तीन प्रकार के भाव तथा पांचों गुणों प्रादि के दार्शनिक सिद्धान्तों का ज्ञान भी मुनि-धर्म का आवश्यक अङ्ग था । तपश्चर्या कठोर व्रतों एवं तपों की साधना मुनि धर्म की आधारभूतचर्या मानी जाती थीं। तपों के द्वारा निर्जरा होती है ।५ दो प्रकार की-सविपाक तथा प्रविपाक निर्जराओं में से उपकर्म अथवा प्रविपाक निर्जरा का प्रत्यक्ष सम्बन्ध तपों से ही है। स्वाभाविक रूप से होने वाले कर्मफल का समय से पहले ही क्षीण हो जाना उपकर्म अथवा अविपाक निर्जरा कहलाती है जो तप से ही सम्भव होती है । आचार्य श्री प्रात्माराम जी महाराज का कथन है कि जैसे मिट्टी आदि मिला हुआ सोना अग्नि में तपाने से शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार तपश्चर्यारूपी अग्नि में तपकर कर्मफल से मलिन अात्मा शुद्ध हो जाता है और अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर लेता तपों के भेद सैद्धान्तिक रूप से तप के दो मुख्य भेद हैं-बाह्यतप तथा प्राभ्यन्तरतप । १. वराङ्ग०, ३०.५ २. वराङ्ग०, ३०.६-७ ३. वही, ३०.८ . . . . . . ४. एवं तपःशीलगुणोपपन्ना व्रतैरनेकैः कृशतामुपेताः । -वही, ३०.४० ५. स्थितं द्वादशभिर्मेदैनिर्जराकरणं तपः । -चन्द्र०, १८.१११ ६. तपसा निर्जरा या तु सा चोपकर्मनिर्जरा। -चन्द्र०, ८.११०, स्थितानि कर्माणि कृशीकृशानि तपःप्रभावान्मुनिसत्तमेन । ७. प्राचार्य श्री आत्माराम जी महाराज, जैन तत्त्व कलिका, द्वितीय कलिका पृ० १५७
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy