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जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
'समाजशास्त्र' एक विज्ञान है, अथवा कला है, अथवा दर्शन- इस सम्बन्ध में समाजशास्त्रियों में पर्याप्त मतभेद है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री 'चार्ल्स हर्टन कूले (Charls Horton Cooley) का इस विषय में कथन है कि मानव व्यवहारों का यह वैशिष्ट्य है कि कभी वे व्यवस्थित होते हैं किन्तु कभी-कभी आवेशात्मक परिस्थितियों में अव्यवस्थित भी हो जाते हैं। दार्शनिक एवं कलात्मक व्यवहार भी मानव समाज में ही उपलब्ध होते हैं इसलिए 'कूले' के अनुसार 'समाजशास्त्र' एक विज्ञान भी है, दर्शन भी है और कला भी है।'
'काम्टे' के अनुसार 'समाजशास्त्र' किसी मनुष्य की घटना विशेष का अध्ययन नहीं करता अपितु समाज में कार्य करने वाले विविध व्यवहारों, संगठनों तथा सांस्कृतिक मूल्यों में विद्यमान मूल सिद्धान्तों का अध्ययन करता है। काम्टे ने दो प्रकार की सामाजिक घटनाओं को स्वीकार किया है-'सामाजिक स्थिति विज्ञान' (Social Statics) तथा 'सामाजिक गतिविज्ञान' (Social Dynamics) प्रथम विभाग के अन्तर्गत व्यक्ति, परिवार, तथा समाज के नगर, ग्राम, राज्य, राष्ट्र आदि संस्थाएं प्राती हैं तो दूसरे विभाग के अन्तर्गत इन संस्थानों में कार्य करने वाली निश्चित एवं निरन्तर परिवर्तनशील पद्धतियां 'समाजशास्त्र' के अध्ययन का विषय रहती हैं । २ 'सोरोकिन' (Sorokin) के मतानुसार 'समाजशास्त्र' मानव समुदाय के समस्त वर्ग में पाई जाने वाली सामान्य विशेषताओं का अध्ययन करता है और इस अध्ययन का मुख्य प्रयोजन है सामाजिक व्यवहारों का विभिन्न आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, नैतिक, न्यायिक वर्गों की दृष्टि से मूल्याङ्कन करना । वास्तव में 'सोरोकिन' द्वारा प्रतिपादित समाजशास्त्र का यह स्वरूप व्यावहारिक एवं तर्कानुकूल जान पड़ता है। इस मान्यता के अनुसार समाजशास्त्र के अन्तर्गत सभी वर्गों, संस्थाओं तथा समितियों को समाविष्ट किया जा सकता है जो प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से मानव-समाज को प्रभावित करते हैं तथा समय-समय पर युगीन परिस्थितियों के द्वारा सामाजिक मूल्यों तथा व्यवहारों को परिवर्तन के लिए बाध्य करते हैं।
'प्रागस्ट काम्टे' की मान्यता है कि विविध प्रकार के राजनैतिक, आर्थिक तथा धार्मिक मानव व्यवहारों का मूल प्राधार 'समाजशास्त्र' ही होना चाहिए
१. Colley, C.H., Life & the Students, New York, 1927, p. 160 २. Das, A.C., An Introduction to the Study of Society, Delhi,
1972, pp. 10-11 ३. Sorokin, P.A., Contemporary Sociological Theories, New York,
1928, pp. 760-61