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________________ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज का प्रसार आदि समाजोपयोगी कार्य सम्पादित हो पाते हैं तो दूसरी ओर अन्ध जैन धर्म धर्म शाश्वत और परिवर्तनशील विश्वास, रूढ़िवाद, शोषण, संकुचितता, हिंसा, युद्ध, घृणा तथा वैमनस्य आदि सामाजिक विसङ्गतियाँ भी 'धर्म के नाम पर पनपने लगती हैं । निःसन्देह इन सामाजिक बुराइयों का मूल कारण 'धर्म' न होकर उसकी साम्प्रदायिक प्रवृत्ति है । वस्तुत: समाज में किसी भी प्रकार की धार्मिक रूढ़ियाँ जब किसी 'संस्था' या 'सम्प्रदाय' का रूप धारण कर लेती हैं तो उनमें इस त्रुटियों के आने की संभावना रहती ही है। वैदिक धर्म, आदि सभी धर्मों का इतिहास इसका साक्षी है । मूल्यों की परिधि में रहकर ही अपना अपनी मौलिक प्रवृत्तियों से हटकर भी जैन धर्म का भी इस दृष्टि से मूल्याङ्कन किया जाए तो हम देखते काल में जैन युग चिन्तकों ने वैदिक संस्कृति की अनेक मान्यताओं को सैद्धान्तिक विरोध के बावजूद भी स्वीकार किया। जैन महाकाव्यों के काल में जैन धर्म एक नए समाजशास्त्र को लेकर सामने आया जिसके कारण सामाजिक एवं राजनैतिक दृष्टि से जैन धर्म को पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त हुई । दूसरी ओर बौद्ध धर्म वैदिक संस्कृति के साथ कोई समझौता न कर सकने के कारण अपनी सामाजिक लोकप्रियता को उत्तरोत्तर खोता चला गया । कर पाता है। प्रत्येक धर्म को समाज मूल्यों को प्रश्रय देना ही पड़ा है । हैं कि परवर्ती ३१४ वास्तव में विकास प्रकार की बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म जैसे शक्तिशाली धर्म को भी समय-समय पर अपने धार्मिक मूल्यों को परिवर्तित करना पड़ा है । वेद तथा ईश्वर विरोधी बुद्ध भी गुप्तकाल में राम, कृष्ण आदि के समकक्ष अवतार के रूप में स्वीकार कर लिए गए ' बौद्धानुयायियों को आकर्षित करने तथा हिन्दू धर्म के बौद्ध विरोध को समाप्त करने के लिए ऐसा करना आवश्यक था । जैन धर्म के 'अहिंसा' सिद्धान्त का भी ब्राह्मण संस्कृति पर विशेष प्रभाव पड़ा । २ प्रस्तुत अध्याय में इसी समाज सापेक्ष दृष्टि को महत्त्व देते हुए जैन धर्म की वैचारिक पृष्ठभूमि सहित जन-सामान्य की विविध धार्मिक गतिविधियों, व्रताचरण, पूजा पद्धतियों, मन्दिर - तीर्थ स्थानों एवं विविध धार्मिक उत्सव महोत्सवों आदि पर प्रकाश डाला गया है। इसके साथ ही जैनेतर धार्मिक जनजीवन पर अपेक्षित चर्चा प्रस्तुत की गई है । धर्मप्रभावना की अपेक्षा से प्राध्यात्मिक साधना एवं पौराणिक तथा दार्शनिक मान्यताओं की भी दिशा निर्देशक भूमिका रहती है। इसी उद्देश्य से जैन मुनिधर्म, तपश्चर्या, जैन देवशास्त्र, एवं तत्कालीन जैन एवं जैनेतर दार्शनिक प्रवृत्तियों को भी स्पष्ट किया गया है । १. भगवत शरण उपाध्याय, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, पृ० ४-७, १६-२१ २. कैलाश चन्द्र, दक्षिण भारत में जैनधर्म, पू० १६३
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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