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________________ प्रावास-व्यवस्था, खान-पान तथा वेश-भूषा ३११ परिवर्तन प्राता रहा था। ऐसा भी विदित होता है कि एक विशेष प्रकार की आवास व्यवस्था आर्थिक उन्नति के कारण परिवर्तित होकर दूसरी मावासीय संस्थिति का रूप धारण करती जा रही थी। खेट, मड़म्ब, द्रोणमुख आदि संस्थितियां इसी प्रकार की थीं। ऐसा ही 'निगम' नामक प्रावासीय संस्थिति के विषय में भी कहा जा सकता है । मूलतः 'निगम' यद्यपि व्यापारिक गतिविधियों से जुड़े ग्राम थे तथापि इन निगमों में नगरों के वातावरण की भी कुछ झलक देखी जाने लगी थी। व्यापारिक प्रआयामों से सम्बद्ध होने के कारण निगम ग्राम जहाँ समृद्ध एवं धनधान्य सम्पन्न दिखाई देते हैं वहाँ तत्कालीन सामन्तवादी अर्थव्यवस्था को नियोजित करने वाले केन्द्र स्थान के रूप में भी इनका विशेष महत्त्व बन गया था। परवर्ती साक्ष्यों द्वारा इन्हें अनाज-मण्डी अथवा 'अनाज वितरण केन्द्र (भक्त ग्राम) के रूप में पारिभाषित किया गया है। वास्तुशास्त्र तथा कोषग्रन्थों में विभिन्न प्रकार की शास्त्रीय परिभाषाएं यद्यपि इनके स्वतन्त्र अस्तित्व की पुष्टि करती हैं तथापि आर्थिक दृष्टि से समग्र मध्यकालीन आवास व्यवस्था के दो ही प्रमुख विभाजन स्वीकार किए जा सकते हैं। वे दो विभाजन हैं—नगर तथा ग्राम । इन दोनों आवास चेतनाओं के मध्य विकसित होती तीसरी 'निगम चेतना' का तात्कालिक स्वरूप मध्यकालीन अर्थव्यवस्था का युगीन परिणाम माना जा सकता है। प्रस्तुत अध्याय में 'निगम' के अर्थ निर्धारण की अपेक्षा से भी इसके तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक पक्षों पर प्रकाश डाला गया है तथा यह पुष्टि की गई है कि प्राचीन भारत में 'निगम' के 'व्यापारियों के संघटित समूह' अथवा 'व्यापारिक समिति' अर्थ का औचित्य नहीं रहा था तथा यह सिद्ध किया गया है कि 'निगम' प्राचीनकाल से लेकर मध्यकाल तक या तो अर्धविकसित ग्राम के रूप में अपनी आवासीय संस्थिति बनाए हुए थे अथवा आर्थिक समृद्धि के परिणाम स्वरूप ये नगर तुल्य वास्तुशिल्प की अपेक्षा से विकसित हो रहे थे। खान पान एवं वेश-भूषा से सम्बद्ध जैन महाकाव्यों की सामग्री अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है। प्रोदन (भात), करम्भक (सत्तु), मण्डक (चपाती), खाद्य (खाजा), अपूपिका (मालपूप्रा), मर्मराल (पापड़), वटक (वड़ा), तीमन (कढ़ी), इड्डुरिका (पूरी), मोदक (लड्डू) आदि भोज्य पदार्थों के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। मांस भक्षण एवं मदिरापान तत्कालीन समाज में प्रचलित था परन्तु जैन धर्मावलम्बी इनसे परहेज करते थे। वेश-भूषा के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के सिले हुए वस्त्रों की चर्चा आयी है। स्त्रियाँ सौन्दर्य प्रसाधन एवं आभूषणों की विशेष शौकीन होतीं थीं। उत्तरीय (ऊपरी वस्त्र), अन्तरीय (अधोवस्त्र), अंशुक
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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