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जन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज
दृष्टियों से आभूषणों का विशेष महत्त्व था।' परन्तु महाकाव्य के लेखकों ने स्त्रियों के सन्दर्भ में आभूषणों के औचित्य का विशेष प्रतिपादन किया है ।२ चन्द्रप्रभचरित में एक स्थान पर मणिकुण्डल, अङ्गद, किरीट, कटक, रशना आदि आभूषणों का वच्चों के सन्दर्भ में भी चर्चा पाई है। जैन संस्कृत महाकाव्यों के आधार पर प्राभूषणों की संख्या बहुत अधिक प्रतीत होती है । केवल वरांगचरित के ही एक प्रसङ्ग में स्त्रियों के पन्द्रह प्रकार के प्राभूषणों का वर्णन प्राया है। पमानन्द महाकाव्य के एक प्रसंगानुसार प्रङ्गानुसारी प्राभूषणों के पहनने योग्य स्थानों का भी उल्लेख आया है ।५ स्त्रियां प्रङ्ग-प्रत्यङ्ग में प्राभूषण धारण करती थीं। सामान्यतया ये प्राभूषण सोने, चाँदी, मुक्ता, मणि, रत्न आदि धातुओं तथा पुष्पों
१. किरीटहाराङ्गदकुण्डलानि ग्रीवोरुबाहूदरबन्धनानि । स्त्रीपुसयोग्यानि विभूषणानि विभूषणाङ्गा विसृजन्ति शश्वत् ॥
-वराङ्ग०, ७.१७ २. चक्रायमाणमणिकर्णपूरैः पाशप्रकाश रतिहारहारेः । भूमिश्च चापाकृतिभिवरेजुः कामास्त्रशाला इव यत्र बालाः ।।
-नेमि०, १.३६ ३. मणिकुण्डलाङ्गदकिरीटकटकरशनादिभूषणः । -चन्द्र०, १७.२२ ४. रत्नहारप्रवालांश्च न पुरप्रकटाङ्गदम् ।
मुक्ताप्रलम्बसूत्राणि मालावलयमेखलाः ।। कटकान्यूरुजालानि केयूराः कर्णमुद्रिका: । कर्णपूरान् शिखाबन्धान्मस्तकाभरणानि च ।। कण्ठिका वत्सदामानि रसनाः पादवेष्टकाः । पालुण्ठ्याकुञ्च्य सर्वाणि चिक्षिपुविदिशो दिशः ।।
-वराङ्ग०, १५.५७-५६ ५. मणिमयकटके क्रमयोः कटिसूत्रं कटितटे विकटशोभम् ।
करयोः कङ्कणयुगलं भुजयोरङ्गदयुगं चङ्गम् ।। हृदयभुबि हारलतिका कण्ठतटे कण्ठिकाऽप्यकुण्ठश्रीः ।। श्रुत्योः कुण्डलयुगलं मौलौ माल्यं तथा मुकुट: ।
-पद्मा०, ४.७.८ Shastri, Ajay Mitra, India as seen in the Kuttani-Mata of Damodar Gupta, Delhi, 1975, p. 138, तथा द्विस०, १.३८. पद्मा०, ६५३.६३