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अर्थ-व्यवस्था एवं उद्योग-व्यवसाय
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सार्थवाहों के काफिलों, उनके अधीन कार्य करने वाले सेवक वर्गों तथा उनके मार्ग में आने वाली कठिनाइयों आदि का महाकाव्यों में विशद वर्णन आया है। व्यवसायचयन की युगीन प्रवृत्ति का दिग्दर्शन कराते हुए जैन महाकाव्यों की उपयोगी सामग्री वर्णव्यवस्था के अनुरूप व्यवसाय चयन की समाजशास्त्रीय प्रवृत्ति को विशद करती है। ब्राह्मण वर्ग एवं क्षत्रिय वर्ग के कुलपरम्परागत व्यवसाय क्रमशः पौरोहित्य व्यवसाय एवं सैन्य व्यवसाय रहे थे तो वैश्य एवं शूद्र कला-कौशलजीवी के रूप में रूढ़ हो चुके थे। समाजशास्त्रीय दृष्टि से ब्राह्मण, क्षत्रिय अपने प्राचीन गौरव को खोते जा रहे थे एवं कुलपरम्परागत व्यवसाय से जीविकोपार्जन करते थे। सामन्तवादी अर्थव्यववस्था के सन्दर्भ में कृषि-उत्पादक एवं उसके वितरक शूद्र एवं वैश्य वर्ग को एक नवीन संघटित संचेतना को राज संस्था की ओर से विशेष प्रोत्साहन मिल रहा था ताकि सामन्तशाही उपभोक्ताओं को अधिकाधिक लाभ मिल सके । समाज में कुल परम्परागत चयन को वरीयता दी जाती थी और कुलेतर व्यवसाय चयन को निरुत्साहित किया जाता था। इस प्रकार हम यह देखते हैं कि भूमिदानों की प्रथा ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, एवं शूद्र वर्ग के परम्परागत श्रम विभाजन के मूल्यों को शिथिल बना दिया था। आर्थिक परिस्थितियों के मूल्यों की अपेक्षा से श्रम विभाजन की वर्ग चेतना अनुप्रेरित थी।