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________________ श्रर्थव्यवस्था एवं उद्योग-व्यवसाय २३७ उपर्युक्त तालिका में किसी व्यवसायी विशेष के आधार पर तत्कालीन व्यवसायों पर प्रकाश डाला गया है । किन्तु कुछ ऐसे भी व्यवसायों के प्रस्तित्व की सम्भावना की जा सकती है जिनका संस्कृत जैन महाकाव्यों में उल्लेख तो प्राया है किन्तु उसकी किसी पारिभाषिक संज्ञा विशेष का निर्देश नहीं हुआ है । इस प्रकार के प्रचलित महत्त्वपूर्ण व्यवसायों की स्थिति इस प्रकार थी - ४१. बैलगाड़ियों द्वारा बोझा ढोने वाले व्यवसाय-बैल गाड़ी के लिए 'शकट' तथा 'गन्त्री' आदि शब्दों का प्रयोग श्राया है । ' ४२. गन्ना पिरोने प्रादि से सम्बन्धित व्यवसाय — यन्त्रों द्वारा तिल, ईक्षु श्रादि का रस निकालने के उल्लेख मिलते हैं । ४३. फल- पुष्पों से मदिरा सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार की है । आदि बनाने से सम्बन्धित व्यवसाय - इस 'मदिरा' बनाने की सूचना भी मिलती ४४. वृक्षों से घूप प्रादि बनाने से सम्बन्धित तथा अन्य सुगन्धित लेपादि वस्तुओं के अस्तित्व होती है। व्यवसाय — काला गरु धूप की सूचना भी प्राप्त ४५. श्रायुध निर्माण सम्बन्धी व्यवसाय — अनेक प्रकार के धनुष, तीर, तलवार तथा अन्य लौह-निर्मित आयुधों का आलोच्य काल में निर्माण होता था । ४६. वाहन बनाने से सम्बन्धित व्यवसाय - ' रयकर्ता' का स्पष्ट उल्लेख आया है । - ४७. गोमय व्यवसाय — उपले प्रादि बनाने से सम्बन्धित व्यवसाय की सूचना भी प्राप्ति होती है । ४८. भिक्षा व्यवसाय - भिक्षा मांगने को भी जीविकोपार्जन से सम्बन्धित व्यवसाय के रूप में वर्णित किया गया है ८ १. चन्द्र०, १३.२६ तथा वर्ध०, ४.४ - २. पीड्यन्ते तिलयन्त्रेषु ईक्षुयन्त्रे तथापरे । — वराङ्ग०, ५.७१ तिलतोयेक्षुयन्त्राणां रोपणदावदीपनम् । - धर्म०, २१.४५ पिष्यन्ते तिलपेषं चित्रैर्यन्त्रैश्च कुत्रापि । - पद्मा०, ३.१६७ ३. प्ररिष्टमैरेयसुरामधूनि कादम्बरीमद्यवरप्रसन्नाः । - वराङ्ग०, ७.१५ ४. तुरुष्ककालागरुचन्दनानाम् । - वही, ७.६ तथा कर्पूरकृष्णागुरुघूपधूपनैः । - पद्मा०, ३.१२५ ५. विशेष द्रष्टव्य, प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ. १६८-८४ ६. धर्म०, २१.४५, त्रिषष्टि०, २.६.३८ ७. परि०, ३.१३ 5. परि०, ८.२३०
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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