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फूल, फल का रस, दारु, मांस और स्त्री को भयंकर जानकर जिन्होनें इनका त्याग किया है, वह दुष्करकारक मुनि को मैं वंदन
करता हुँ। ५२) ज्ञानादि से संपन्न साधु, सभी जीवो को आत्मवत, अर्थात खुद के
आत्मा के जैसा देखे। ५३) सचित उपसर्ग-यानि= लिय॑य या मनुष्य अपने शरीर के अवयवो
से मारे वो, अचित उपसर्ग = लकडी, पथ्थर से मारे वो, स्थान उपसर्ग=जहाँ क्रुर, म्लेच्छ, चोर आदि के स्थान हो वहाँ तकलीफ होवे वो, काल उपसर्ग = अती ठंडी, अती गरमी वाली जगह, भाव उपसर्ग = ज्ञानावरणदि मोहनीयादि कर्म परेशान करे वो। स्नेहादि संबंध रुप अनुकूल उपसर्ग दिखने में सूक्ष्म है, इसलीए
समर्थ साधु अनुकूल उपसर्ग का भी त्याग करता है। ५५) वाद करते समय भी मुनि खुद की चित्तवृत्ति को प्रसन्न रखे और
दुसरे मनुष्य उसके विरोधी न बने ऐसे आचरण से वह अपना पक्ष
रजू करे। ५६) दुःख दुष्कृत्यो का नाश करने के लीए, क्षमा वैर का नाश करने के
लीए काया में अशुचि भाव वैराग्य के लीए, वृध्दत्व संवेग के
लीए और मृत्यु सर्व त्याग महोत्सव के लीए है। ५७) बुध्दिमान पुरुष (मुनि) जरुरत पड़ने पर स्त्री से जब बात करे तो,
अस्थिरता से, स्नेह बिना, अवज्ञा युक्त होकर देखे और अक्रोछित होते हुए भी क्रोध से देखे । किसी कारणसर गृहस्था के घर पर साधु को उपदेश देने का प्रसंग आवे तो विषयजुगुप्सा प्रधान वैराग्य जनक उपदेश विधिपूर्वक देनेका विधान इस सूत्र में कीया गया है।
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