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४३) निष्कारण (गाढ कारण बिना) साधु मालीश एवं (हाथ-पैर
दबाने रुप) मर्दन आदि करावे नहीं। ४४) साधु तीन वस्त्रो से ज्यादा न ओढे। ४५) जो गृहस्थ गोचरी के लीए बुलाने आवे, उसके घर, या उसके
साथ साधु गोचरी न जावे, ऐसा इस सूत्रमें उत्तराध्यायन में तथा निशीय सूत्र में भी कहा है।
२. सूत्रकृतांग सूत्र (सूयगडांग सूत्र) ४६) जो सदैव खुद की प्रशंसा और दुसरो की निंदा करते रहता है वह
अनंत संसार में भटकता है। ४७) मायावी व्यक्ति भले ही उत्कृष्ट धर्म क्रिया करे, तो भी उसका
मोक्ष होता नही है । भले चाहे वो मासक्षमण के पारणे मासक्षमण भी क्यों न करता है। संसारीयों का अति परिचय साधु के लीए दुःख का कारण है, इसलीए संयमी साधु, परिचित परिजनो का त्याग करें । गृहस्थो के द्वारा मिलनेवाले वंदन-पूजन-सत्कार भी साधु की साधना में विघ्नरुप है। साधु-राजा राजनेता आदि का संसर्ग न करे, क्योंकि उससे समाधिभंग होता है । वह सामने से आए तो सीर्फ धर्मउपदेश
देवे। ५०) अज्ञान से उपार्जित पूर्व कर्मों का नाश ‘परिषहो के सहने से
होता है।
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