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________________ [६३ दूसरा अधिकार। क्योंकि वे मुनिराज समुद्रके समान महागम्भीर थे ॥२१४॥ वे मुनिराज इस घटनाको अन्तराय समझकर लौटकर वनमें चले गये और वनमें जाकर योग धारणकर मेरुपर्वतके समान अचल आसनसे बिराजमान होगये ॥ २१५ ॥ जिसप्रकार जलसे भरी हुई पृथ्वीपर जलती हुई अग्नि कुछ काम नहीं कर सकती उसीप्रकार क्षमा धारण करनेवाले पुरुषके लिये दुष्टोंके बचन कुछ नहीं कर सकते हैं।।२१६॥ जिसप्रकार काले पत्थरका मध्यभाग पानीसे नरम नहीं होता उसीप्रकार योगियोंका निर्मल हृदय क्रोधरूपी अग्निसे कभी नहीं जलता है ॥२१७॥ तदनंतर वे तीनों ही महा नीच स्त्रियां रात्रिके समय मुनिराजके समीप आई और क्रोधित होकर अनेक उपद्रव करने लगीं ॥२१८॥ एकने आकर मुनिराजके समीप ही रोना प्रारंभ किया, दूसरी कामसे पीडित होकर उनके शरीरसे लिपट गई और तीसरीने धुआं कर मुनिराजको बहुत ही दुःख दिया। सो ठीक ही हैकामसे पीडित हुआ मनुष्य कौन कौनसे बुरे काम नहीं दधौ चित्ते न गंभीरः सरित्पतेरिवापरः ॥२१४॥ अंतरायं मुनिः कृत्वा व्याघुन्य कानने शुभे । गत्या योगं समादाय स्वर्णाचल इव स्थितः ॥ २१५ ॥ क्षमायुक्तस्य मर्त्यस्य दुर्जनवाक् करोति किम् । सलिलार्द्रकमेदिन्या ज्वलद्धनंजयो यथा ॥ २१६ ॥ योगिनो निर्मल चित्तं कोपाग्निना न दह्यते ॥ कृगपाषाणमध्यं हि यथा न भिद्यतेंऽभसा ॥२१७॥ ततस्तिस्रो मुनींदांते समागत्य महाधमाः । त्रियामासमये कोपादुपद्रवान् प्रचक्रिरे ॥२१८॥ महामुनिसमासन्ने पूत्कार एकया कृतः । तदंगे परया लिप्ता मदनातुरचित्तया ॥ २१९ ॥
SR No.023183
Book TitleGautam Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchandra Mandalacharya, Lalaram Shastri
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1926
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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