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पांचवां अधिकार।
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स्वामीको मैं भी नमस्कार करता हूँ॥२६२ ॥ जिन्होंने व्रतरूपी योद्धाओंके समुदायसे कर्मरूपी शत्रुओंको जीत लिया है, केवलज्ञान पाकर आगमका निरूपण किया है, अपने बचनोंके द्वारा अनेक राजाओं और मनुष्योंको धर्मोपदेश दिया है तथा अन्तमें जो समस्त कर्ममल-कलङ्कसे रहित होकर
और शुद्ध चैतन्य अवस्थाको धारण कर मुक्तिरूपी स्त्रीके स्वामी हुए हैं ऐसे श्रीगौतमस्वामी, तुम संसारी जीवोंके लिये इच्छाके अनुकूल और सदा शास्वत रहनेवाला मोक्षरूप कल्याण करें ॥ २६३॥ श्रीजिनेन्द्रदेवका कहा हुआ यह जैनधर्म इन्द्र, चक्रवर्ती आदिके उत्तम उत्तम पद देनेवाला है, प्रीति उत्पन्न करनेवाला है, इच्छाएँ पूरी करनेवाला है, कामदेवके समान रूप प्रदान करनेवाला है, तेज बुद्धि आदि गुणोंको देनेवाला है, कीर्ति फैलानेवाला है, सौभाग्य देनेवाला है, तीर्थकर आदिकी उत्तम उत्तम विभूतियोंको देनेवाला है, भोगोपभोगकी सामग्री देनेवाला है और स्वर्ग मोक्षको प्रदान वंदेऽहं गौतमं तं सकलनृपनुतं शक्रवृंदप्रवंद्यम् ॥ २६२॥ काराति बिनित्य व्रतसुभटचयैः केवलज्ञानमाप्य, श्रीसिद्धांतं निरूप्य नरनृपतिगणं संप्रबोध्य स्ववाक्यैः । योऽभून्मुक्तिप्रियोशोऽखिलमलरहितः शुद्धचिद्रूपधारी, श्रेयो वो नः स नित्यं ध्रुवमपि कुरुतां वांच्छितं देहभाजाम्, ॥२६३||देवेंद्रानंतचक्रिप्रमुखपदकरं प्रीतिदं कामदं वै, पुष्पेषो रूपतेजो बहुसुमतिकरं कीर्तिसौभाग्यकारं । श्रीमतीर्थकरादेः प्रवरविभवदं भोगदं भव्यमाः , नैनं धर्म कुरुध्वं जिनवरकथितं स्वर्गमुक्तिप्रदातृ ॥ २६४ ॥ गच्छेशो नेमिचंद्रोऽखिलकलुषहरोऽभूयशः