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________________ ६८. * पार्श्वनाथ-चरित्र * झुकाकर मुनिराजको नमस्कार किया। अबके मुनिने फिर गजेन्द्रसे कहा, हे गजराज! सुनो-इस नाटकके समान संसारमें जीव नटकी तरह नाना रूप धारण किया करता है। तुम पूर्व भवमें ब्राह्मण और तत्त्वज्ञ श्रावक थे और अब अपनी जातिके अज्ञानसे मूढ हाथी बने हुए हो। इसका मुझे बड़ा भारी खेद है। अब तुम पूर्व जन्मकी तरह विषय और कषायका सङ्ग छोड़ दो और समता-रसको भजो। इस समय तुम सर्प-विरतिका तो पालन नहीं कर सकते ; पर तोभी देश-विरति धारण कर सकते हो। इसलिये पूर्व भवमें अङ्गीकार किये हुए बारह व्रतरूपी श्रावक-धर्म तुम्हें प्राप्त हों।" इस प्रकार राजर्षि अरविन्दके बतलाये हुए धर्मके रहस्यको उसने सूंडके अग्रभागसे श्रद्धा-सहित स्वीकार कर लिया। वरुणा हास्तिनी भी उसीकी तरह जाति स्मरणको प्राप्त हुई । इस प्रकार उन्हें, देखकर मुनिने एक बार फिर धर्मोपदेश दिया। अनन्तर गजराज श्रावक हो, मुनिको नमस्कार कर परिवार सहित अपने स्थानको चला गया। फिर बहुतसे लोग वहां आकर इकठे हुए और उस हाथीके बोधको देखकर विस्मय पाते हुए कितनोंने दीक्षा ले ली और कितने ही श्रावक हो गये। उसी समय सार्थपति सागरदत्त भी जिनधर्ममें दूढ़ वित्तवाला हो गया। इसके बाद राजर्षि अरविन्दने अष्टापद पर्वतपर पहुँचकर समस्त जिनप्रतिमाओंका वन्दन किया और वहीं अनशन कर केवल-शान प्राप्त कर सिद्धि-स्थानको प्राप्त हुए।
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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