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________________ ___ * पाश्वनाथ-चरित्र * "भाई! सुनो, तुमने घीका दान करके देवलोककी आयु बाँधी थी,पर अब तुममें कुविकल्प आ जानेसे तुमने अधोगतिकी तैयारी कर ली।” श्रावकने फिर कहा,-“हे महात्मा! अब कहिये तो मैं फिर दान करूँ जिससे उत्तम गति मिले।" मुनिने कहा,"लोभसे पैसा फल नहीं मिलता। इसके बाद क्रमसे मरण पाकर वह धन्य सेठ आठवें सहस्त्रार नामक देवलोकमें जाकर देवता हुआ और फिर विकल्प रहित सुपात्र दानकर अन्तमें मुक्तिको प्राप्त हुा ।" ___इस प्रकार अरविन्द राजाके साथ रहकर वह सार्थवाह प्रतिदिन धर्मकी बातें सुनने लगा। अन्तमें कल्पवृक्षके समान गुरुको पाकर उस सार्थवाहने सर्वथा मिथ्यात्वको छोड़कर सम्यक्त्वको ग्रहण किया। क्रमशः अरविन्द मुनिके साथ जाते-जाते जिस जङ्गलमें मरुभूतिका जीव गजराज हुआ था, उसी वनमें सागरदत्त अपने साथियोंके साथ ठहर गया। वहाँ पासमें एक बड़ा भारी सरोवर था, उसके कमलोंमें गूंजते हुए भौरे ऐसे मालूम होते थे, मानों मुसाफिरोंकी अगवानी कर रहे हों। शब्दायमान हंस, सारस और चक्रवाक पक्षी मानों उसी सरोवरके गुण गा रहे थे। वह सरोवर मुनियोंके मानसके समान निर्मल जलसे भरा था। उसी सरोवरके किनारे ये सब मुसाफिर ईधन-पानीका प्रबन्ध कर रसोई बनाने लगे। इतनेमें हाथियोंका सरदार वह मरुभूति हाथियोंके साथ उसी सरोवरमें पानी पीने आया। बड़ी देरतक हाथि
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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