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* पार्श्वनाथ चरित्र #
अग्निप्रवेश कर उसी नरकमें गयी । वहांसे निकल कर दोनों पुष्करवर द्रोपके भरतक्षैत्रमें भिन्न भिन्न दरिद्री कुलोंमें पुत्र और पुत्रीके रूपमें उत्पन्न हुए। पूर्व संयोगके कारण इस जन्ममें भी उन दोनोंका एक दूसरेसे ही व्याह हुआ । एक बार उन लोगोंने कई साधुओंको देखकर उन्हें भक्ति और आदर पूर्वक आहारपानी दिया । इसके बाद उपाश्रयमें जाकर उन दोनोंने उनका उपदेश सुना और गार्हस्थ्यं धर्म ग्रहण किया । इस धर्मके पालनसे मृत्यु होनेपर वे पांचवें ब्रह्मदेव लोकमें देव हुए। वहांसे युत होनेपर दोनोंका जीव वणिकोंके यहां पुत्र और पुत्रीके रूपमें उत्पन्न हुआ। वही दोनों तुम हो । हे बन्धुदत्त ! तुने तियंवोंका वधकर उन्हें वियोग दुःख दिया था इसी लिये तुझे इस जन्म में वियोग सहना पड़ा। भले बुरे जो कुछ कर्म किये जाते हैं, वे यथा समय उसी रूपमें प्रकट हुए बिना कदापि नहीं रहते ।"
पार्श्वनाथ भगवानके मुंहसे यह वृत्तान्त सुन कर बन्धुदत्तको जातिस्मरणज्ञान हो आया। अब उसे पूर्व जन्मकी सारी घटनायें ज्यों-की-त्यों दिखने लगी। उसने भगवानके चरणोंमें गिर कर कहा, "हे भगवन् ! आपका कहना यथार्थ है । अब मैं अपने पूर्वजन्मकी सारी बातें अच्छी तरह देख रहा हूं। यह मेरे लिये परम सौभाग्य की बात है कि आपके चरण कमलोंकी मुझे प्राप्ति हुई। अब मुझे क्या करना चाहिये और क्या स्मरण करना चाहिये यह बतलाने की कृपा करें।"