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________________ www www * पानाथरित्र पन्धुदत्तने भगवानसे पूछा,- हे भगवन् ! किल कर्मसे ध्याह होते हो मेरी छः नियां मर गयीं और सातवीका वियोग हुआ।" भगवानने कहा,-"यह तेरे पूर्वजम्मके क्रोका फल है। एन विन्ध्याचल पर्वतपर शिवरसेन नामक एक जमीन्दार रहता था। वह सदा हिंसामें तत्पर रहता था। उसके चन्द्रावती नामक एक स्त्री थी। शिखरसेन सदा सप्त व्यसन और पापमें लीन रहता था। उसीके पास एक बार रास्ता भूलकर साधुओंका समुदाय मा पहुंचा। उन्हें देख शिखरसेनने पछा,-"आप लोग कौन है और वहाँ क्यों आये हैं ?" मुनिभोंने बतलाया कि हमलोग भाधु है और रास्ता भूलकर यहां आ पहुंचे हैं। इस समय शिखरसेनकी स्त्रीने उससे कहा,-"नाथ ! इन्हें फलाहार फराकर रास्ता बता । आइये। यह सुन मुनियोंने कहा, "हम लोगोंने बहुत दिनोंका वर्ण और गन्धादि रहित फल खाया है, इसलिये हमें अब और फलोंकी आवश्यकता नहीं है किन्तु क्षण भरके लिये खिर होकर तुहमारी बात सुन ले। इससे तेरा फल्याण होगा।” मुनियोंकी यह बात सुन शिखरसेन उनके पास आ बैठा। मुनियोंने उसे नमस्कार मन्त्र सुमाकर कहा-"इस नमस्कारका निरन्तर स्मरण करना और बिना संग्रामके किसी जीवका घात न करना। यह कहावे मुनिवर वहांसे अन्यत्र चले गये। शिखरसेन उन्हें रास्ता बतला कर अपने घर लौट आयाः और मुनिओके आदेशानुसार धर्म-कार्य करने लगा। पकबार शिखरसेन अपनी सोचन्द्रावतीके साथ नदीमें अल
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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