________________
• सप्तम सर्ग
४०
अर्थात्-"मोक्षपर विजय प्राप्त करनेवाले, सर्वश, यथावस्थित वस्तुओंके प्रकाशक, त्रिभुवन पूजित, वीतराग देव! आपको नमस्कार है।"
जिन मन्दिरमें जाकर भगवानको प्रतिमाके समक्ष इस प्रकार स्तुति करना एवं विनयपूर्वक चन्दन करना ही दर्शन कहलाता है। इसके फल स्वरूप मोक्ष तककी प्राप्ति हो सकती है। मुनिराजको यह बात सुन भिक्षुकने कहा,-"भगवन् ! अब मैं ऐसाही करूंगा। इसके बाद भिक्षुक उस नगरके प्रधान चैत्यमें गया और वहां जिनेश्वरका दर्शन कर उसो तरह स्तुति करने लगा। वहांसे निकल कर वह दूसरे और दूसरेसे निकल कर तीसरे चैत्यमें गया
और इसी प्रकार सभी मन्दिरोंमें दर्शन किये। अब यही उसका नित्य कर्म हो गया। इसके बाद भिक्षा वृत्तिमें जो कुछ मिल जाता, उसोमें सन्तोष मानता। बीच-बीचमें वह अपने मनमें सोचता कि-"इस प्रकार केवल स्तुति करनेसे मुझे कोई फल मिलेगा या नहीं ? फिर कहता,-"मैं ऐसी बातें सोचता ही क्यों हूँ ? मुनिराजने जब कहा है, तो दर्शन और नमस्कारसे अवश्य ही सर्वार्थसिद्धि को प्राप्ति होगी।"
इस प्रकार दिन प्रति दिन उसकी श्रद्धा गुढ़ होती गयी। अन्तमें उसके हृदयमें राज्य प्राप्तिको इच्छा उत्पन्न हुई। वह अपने मनमें कहने लगा- उत्तम कुलमें जन्म होनेसे ही क्या लाभ ? यदि नीच कुलमें जन्म मिलने पर भी राज्य मिले, तो वह उत्तम कुलके जन्मकी अपेक्षा कहीं अच्छा है। इस प्रकार सोचते और