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________________ ४६४४ * पार्श्वनाथ चरित्र * चलो, मैं अभी मानता पूरी कराये लाता हूं । बुढ़िया तो यह चाहती ही थी, अतएव वह तुरत उसके साथ जानेको राजी हो गयी । वयरसेनने उसे अपने कंधेपर बैठाकर पादुकायें पहन लीं । पादुकायें पहनते ही वे दोनों आकाश मार्गसे उड़कर समुद्र स्थित कामदेव के मन्दिर में जा पहुंचे। वहां पहुंचनेपर बुढ़ियाने वयरसेनसे कहा - " हे वत्स ! मैं बाहर बैठी हूं। पहले तुम अन्दर जाकर कामदेवको पूजा कर आओ ।" बुढ़िया की यह बात सुन वयरसेन पादुकायें बाहर रख चैत्यमें पूजा करने गया, किन्तु वह ज्योंही अन्दर गया त्योंही बुढ़िया पादुकायें पहनकर आकाशमार्ग से अपने मकानको उड़ आयो । वयरसेन इस प्रकार फिर एक बार ठगा गया । उधर उसने चैत्यसे बाहर निकलकर देखा, तो पादुका और बुढ़ियाका कहीं पता भी न था । यह देखकर वह कहने लगा, -- “ अहो ! मैं चतुर होनेपर भी बुढ़िया द्वारा फिर उगा गया और अबकी बार तो बहुतही बुरी तरह ठगा गया । खैर, जो होना होगा सो होगा, चिन्ता करनेसे क्या लाभ ? बाल्यावस्था में जिसने पेट भरनेके लिये माताके स्तनोंमें दूध उत्पन्न किया था, वह क्या अब भी भोजन न देगा ?” इस प्रकार विचार कर वह वनफल खाता हुआ उसी जगह दुःखपूर्वक समय बिताने लगा । कुछ दिनोंके बाद उसी जगह एक विद्याधर आ निकला । वह उस समय अष्टापद तीर्थकी यात्रा करने जा रहा था । कुमारको इस तरह दुःखो अवस्थामें देखकर उसे दया आ गयी। उसने उसके पास आकर पूछा, "तू
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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