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________________ •प्रथम सर्ग___ इस प्रकार अपनी स्त्रीके वचन सुनकर कुमारको बड़ा अचम्मा हुआ, तो भी उन्होंने उस नीचकी सङ्गति नहीं छोड़ी, जो ठोक. कोयलेके साथ कपूरकी सङ्गतिके समान मालूम पड़ती थी। कुछ दिन बाद एक दिन राजाने एकान्तमें सजनको बुलाकर कहा,“क्यों सज्जन! तुम्हारी और कुमारकी ऐसी गहरो मित्रता किस लिये हुई ? कुमारका देश कौनसा है ? ये किस जातिके हैं ? इनके माता-पिता कौन हैं ? तुम कौन हो और कहाँसे आये हो ?" यह सुन सज्जनने अपने मनमें विचार किया, कि कहीं कुमार किसी दिन मेरे पहले वर्तावको याद कर मेरी कुछ बुराई न कर बैठे, इसलिये उसका आज ही इलाज करना चाहिये । इसी विचार से उसने कहा,---“हे स्वामिन् ! जो बात कहने लायक न हो, उसे नहीं कहना ही अच्छा है।" अब तो राजाके जीमें और भी सन्देह पैदा हो गया। उन्होंने कहा,-"इसका क्या मतलब ?" इस प्रकार उनको बात सुन-सुनकर सज्जन हँसने लगा। अब तो राजा अधिक आश्चर्यमें पड़ गये और उसे कसम देकर पूछने लगे। सज्जनने भी मौका पाकर यों कहना शुरू किया : “महाराज! आपकी ऐसी ही इच्छा है तो सुनिये । श्रीवासपुरमें नरवाहन नामके राजा हैं-मैं उन्हींका पुत्र हूँ। यह मेरा सेवक है और देखनेमें ज़रा सुन्दर है। किसी सिद्ध पुरुषसे विद्या सोखकर यह अपनी जातिकी लज्जा छिपानेके लिये घर छोडकर इधर-उधर घूमता हुआ यहाँ आया है। पूर्व जन्मके भान्ययोगसे उसे यहाँ इतनी सम्पत्ति मिल गयो। मुझे इसने पहचान
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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