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* पाश्वनाथ-सरित्र * लोगोंको इस समय खूब लाभ होगा।" अनुचरोंकी यह बात सुन कनक और भो तेजीके साथ रास्ता तय करने लगा और कुछ ही दिनोंमें सिंहलद्वाप जा पहुंचा। वहां उसने अपना सब माल बेच दिया। इसमें उसे बहुत ही लाभ हुआ। साथहो उसने स्पर्शपाषाणके टुकड़ोंकी सहायतासे वहां बहुतसा सोना भी तैयार किया। अब वहांसे सौ योजनकी दूरी पर ही चटक पर्वत था। इसलिये वह सिंहलद्वीसे सोधा वहां पहुंचा। वहां उसने अपने नामसे कनकपुर नामक एक नगर बसाया। उस नगरके चारों
ओर उसने एक मजबूत किला बनवाया और उसमें अनेक हवेलिये भी बनवायीं। अब वह अपने समस्त संगियोंके साथ उसी जगह रहने लगा। क्रमशः उसने वहां और भी पचीस गांव बसाये। इसके बाद कनकने उस नगरमें चौरासो मण्डपोंसे अलंकृत और उन्नत तोरणांसे युक्त एक मनोहर जिन-मन्दिर बनवाया। जिसमें उसने उत्सव पूर्वक शुभ मुहूर्त और सिद्धि योगमें श्रीपार्श्वनाथके बिम्बकी स्थापना की। इसके बाद वह वहां नित्य स्नात्रादिक पूजा और मंगल गान कराने लगा।
एक बार वैताढ्य पर्वतका मालिक विद्याधरोंका नायक मणिनड़ नामक विद्याधर नन्दीश्वर द्वोपके शाश्वत जिनकी यात्रा करने गया था। वह वहांके जिनेश्वरोंको वन्दन कर सिंहलद्वीप आया और वहां भी जिन-वन्दना की। इसके बाद वह अपने सानकी ओर जाने लगा। मार्गमें चटक पर्वतके उस ग्रामके ऊपर पहुंचते हो उसका विमान अड़ गया। यह देखकर विद्या