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________________ २२ * पार्श्वनाथ चरित्र * होती है। इसी प्रकार कुमार ललितांग अपने पुण्योंके प्रमावसे प्राप्त हुए सुखोंको भोगते हुए दिन बिताने लगे ।” एक दिन वे अपने महलकी खिड़कीपर बैठे हुए नगरका निरीक्षण कर रहे थे, कि उसी समय एकाएक वही अधम सेवक सज्जन दिखाई दिया। उसके कण्ठ, नेत्र और मुख बीभत्स हो गये थे तथा दुर्निवार क्षुधासे मुख और उदर पिचके हुए थे । वह मलोन शरोरवाला और शरीरपर लगे हुए घावोंपर पट्टी बाँधे हुए था । वह चलती फिरती हुई पापकी मूर्त्ति की तरह मालूम हो रहा था । उसे देख और अच्छी तरह पहचान कर कुमारके वित्तमें बड़ी दया उपजी। वे अपने मनमें विचार करने लगे,“अहा ! इस बेचारेकी ऐसी दुर्दशा क्योंकर हो गयी ? शास्त्रों में कहा है कि, आदमी कर्मानुसार फल भोगता हैं और उसकी बुद्धि भी कर्मानुसारिणी ही होती है, तोभी सुज्ञ जनोंको चाहिये, कि अच्छी तरह विचार कर कार्य करें ।" इस प्रकार विचारकर कुमारने अपने नौकरोंको भेजकर उसे अपने पास बुलवाया और पूछा, “तुम मुझे पहचानते हो या नहीं ?” यह सुन उसने भयसे काँपते हुए आँसुओंसे भरे हुए नेत्रोंके माथ कहा, " हे स्वामी ! पूर्वाचलके ऊँचे शिखरपर विराजमान सूर्यको भला कौन नहीं पहचानता ?” कुमारने कहा, इस तरहकी शङ्का पूर्ण बात मत कहो । साफ़-साफ़ कहो कि मैं कौन हूँ ?” उसने कहा, – “स्वामी ! मैं ठोक-ठीक नहीं कह सकता ।” ललिताङ्ग कुमारने कहा, - “सजन ! भला तुमने जिसकी आँखें निकाली थीं, उसे क्योंकर
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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