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________________ ३७२ •पार्श्वनाथ-चरित्र सरस्वतीने प्राण त्याग दिये। अब मैं तुमसे यही चाहता हूँ कि मेरा यह अपराध क्षमा करो। यदि तुम भी उसकी तरह आत्महत्या करोगे तो मुझे बड़ाही दुःख होगा।" राजाकी यह बात सुनते ही मन्त्री मुर्छित होकर गिर पड़ा। अनेक उपचार करनेके बाद जब किसी तरह उसे होश आया तब उसने कहा-“राजन् ! मैंने अपनी पत्नीसे जो कहा था वह वास्तवमें ठीक ही था। उसके विना अब मेरा जीना कठीन हो रहा हैं । यह सुन राजाने कहा“मन्त्री ! और कुछ नहीं, तो कम-से-कम मुझे प्रसन्न रखनेके लिये भो तुम्हारा जीवित रहना आवश्यक है। यदि तुमने भी परलोककी राह ली, तो शायद इसी दुःखके कारण मेरे जीवनका भी अन्त आ जाय ! इस प्रकार अनेक तरहकी बात बनाते हुए राजाने उसे समझाया-बुझाया। तदनन्तर मन्त्रीने अपने हृदयको पत्थरका सा बना कर जीवित रहना स्वीकार कर लिया, किन्तु उसी समय उसने प्रतिज्ञा कर ली कि अब मैं दूसरी स्त्रीसे व्याह न करूंगा। कुछ दिनों के बाद सब लोग अपने नगरको लौट आये। मन्त्रीके घरमें अभी सरस्वतीकी चिताभस्म और अस्थियोंका शेषांश रखा हुआ था। उसे देखकर वह करुण क्रन्दन करने लगा। यहांतक कि अपने शरीरकी भी ममता छोड़ दी और रात-दिन उसी चिता भस्मको पूजामें लीन रहने लगा। इसी तरह कुछ दिन बीत गये तब उसने एक दिन सोचा कि अब इस चिताभस्मको गंगामें डाल आना चाहिये। यह सोचकर वह काशी पहुंचा और वहां
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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