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________________ * पञ्चम सर्ग * नहीं आती थी। उधर देवियां भी दासीकी भांति वामादेवीके समस्त मनोरथ पूर्ण करती थीं। इस प्रकार गर्भकाल पूर्ण होनेपर वामादेवीने पौष मासकी कृष्ण दशमीको विशाखा नक्षत्रमें, तीनों भुवनको प्रकाशित करनेवाले, सर्पके लाञ्छनसे युक्त और नील रत्नके समाम नील कान्तिबाले पुत्र-रत्नको जन्म दिया। इस समय आकाशमें दुदुभो बज उठो । सभी दिशायें प्रसन्न हो उठी। नरकके जीवों को भी क्षणभरके लिये सुखका अनुभव हुआ। वायु शीतल ओर सुगन्धित हो उठा। पृथ्वोकायादि एकेन्द्रियों जीवोंको भी आनन्द हुआ और तीनों लोक आलोकित हो उठे। इस समय दिक्कुमारियोंके आसन चलायमान हो गये। अवधिज्ञानसे उन्हें प्रभु के जन्मको बात मालूम हो गयो, अतएव वे नृत्य करतो हुई अपने स्थानसे सूतिकास्थान आ पहुची। इनमेंसे मेरु रुचकके अधोभागमें रहनेवाली भोगंकरा, भोगवती, सुभोगा, भोगमालिनी, सुवत्सा, वत्सभित्रा पुष्पमाला और अनिन्दिता नामक आठ दिक्कुमारियां पहले अग्रसर हुई और जिनेश्वर तथा जिन माता को नमस्कार कर कहने लगीं—“हे जगन्मात! हे जगतको आलो. करनेवाली ! आपको नमस्कार है । अधोलोककी रहनेवाली हम दिक्कुमारीय जिनेश्वरका जन्मोत्सव मनाने आयीं हैं।” यह कह उन कुमारियोंने संवर्तक पवनको विकुर्वित कर एक योजन प्रमाण भूमि शुद्ध की और वहीं जिनेश्वरके पास बैठ कर गाने लगीं। इसके बाद मेघंकरा मेघवतो, सुमेघा, मेघमालिनो, तोय धारा, विचित्रा, वारिषेणा और बलाहका—इन उध्वंलोककी
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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