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________________ २२८ * पाश्वनाथ-चरित्र * लड़ाना, शत्रुके पुत्र आदिसे वैर बांधना, भोजन कथा, स्त्री कथा, देश कथा, और राज कथा करना, बीमारी और मार्गपरिश्रमके अतिरिक्त अन्य समय सारी रात सोते रहना, प्रभृति प्रमादाचरणका भी त्याग करना चाहिये। विवेकी श्रावकको इन समस्त जिन वचनोंका एकाग्र मनसे पालन करना चाहिये। अधिक परिग्रह भी लोभका मूल है और लोभ प्राणीको महा. नरकमें ले जाता है। लोभी मनुष्यको किसी तरह भी सन्तोष नहीं होता। कहा भी है कि “सगर राजाको पुत्रोंसे तृप्ति न हुई, कुचि कर्णको गोधनसे तृप्ति न हुई, तिलक श्रेष्ठिको धान्यसे तृप्ति न हुई और नन्दराजाको सोनेके ढेरसे भी तृप्ति न हुई। लोभी मनुष्य नित्य अधिकाधिक धनको इच्छा किया करता है । वास्तवमें लोभ ऐसा ही प्रबल होता है। लोभहीके कारण तो भरतराजाने छोटे भाइयोंका राज्य छीन लिया और लोमहाके कारण नित्य अपार जलराशि नदियों द्वारा मिलने पर भी समुद्रका कभी पेट नहीं भरता। इस महापरिग्रहके सम्बन्ध में यह उदाहरण भा ध्यान देने योग्यहै : महापरिग्रहमें आसक्त और छः खाण्डका स्वामो सुभूम चक्रवर्ती भरतक्षेत्रके छः खण्डोंमें राज्य करता था। उसने एक बार सोचा कि छः खण्डके स्वामी तो और भी कई राजा हो चुके हैं। यदि मैं बारह खण्डोंका स्वामी बनूं, तो सबसे बड़ा समझा जाऊ। यह सोचकर सैन्य और बाहनोंके साथ चमरत्नपर आरूढ़ हो, लवण समुद्रके मार्गसे धातकी खण्डकी ओर प्रस्थान किया। मार्गमें चर्मरत्नके अधिष्ठायक सहस्र देवताओंने विचार किया कि
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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