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* प्रथम सर्ग *
याचक आ जाता, उस दिन उन्हें पुत्र-जन्मका सा आनन्द होता था, उन्हें दानका ऐसा व्यसन था, कि किसी वस्तुको अदेय नहीं समझते थे। __कुमारके एक सेवक था, जिसका नाम सजन था ; पर जो स्वभावका बड़ा ही दुर्जन था। वह कुमारके ही अन्नसे पला था, तोभी उन्हींकी बुराई करता था। जैसे समुद्रके जलसे ही पुष्ट होता हुआ बड़वानल उसीका जल सोखता है, वैसे ही वह सजन कुमारके लिये दुर्जन रूप था। इतनेपर भी कुमार उसको अलग नहीं करते थे, क्योंकि चन्द्रमा कभी कलङ्कको थोड़ेही छोड़ देता है ?
एक दिन राजाने कुमारके गुणोंपर रीझकर बड़ी प्रसन्नता पूर्वक उनको अपने हार आदि मूल्यवान अलङ्कार दे डाले। वह सब कुमारने याचकोंको दे डाला। सज्जनने राजाके पास जाकर इस बातकी चुगली खायी। यह सुनतेही राजाके बदनमें आगसी लग गयी। तुरत ही उन्होंने राज कुमारको एकान्तमें बुलाकर बड़ी मधुर बोलीमें इस प्रकार शिक्षा देनी शुरू की,-"प्यारे पुत्र ! राज्य बड़े झंझटकी चीज़ है। तुम अभी बालक हो, इसलिये तुम्हें बहुतसी बातें नहीं मालूम । यह सारा सप्ताङ्ग राज्य तुम्हारा ही है। पिटारीमें रखे हुए साँपको तरह यह बड़ी सावधानीके साथ चिन्तनीय है और फले हुए खेतकी तरह इसका बारबार सेवन करना चाहिये। राजाको चाहिये कि किसीका विश्वास न करे। राजा अपने ख़ज़ानेके द्वारा अपने कन्धोंको मज़बूत बनाता