SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * तृतीय सर्ग * सारा हिसाब दिखाकर सिद्ध कर दिया कि रत्नोंके मूल्यसे कहीं अधिक रुपया धनपाल लेकर खर्च कर चुका है । अब उसकी एक पाई भी मेरे पास नहीं निकलती।" यह कहकर उसने धनपालको फिर घरसे निकलवा दिया। अब तो धनपालके पास कपड़े भी न रहे । वह बेचारा दरिद्रीकी भांति नगरमें भटकने लगा । भोजनका समय हुआ, तब उसे भूख लगी, किन्तु उसके पास तो फ्टी कौड़ी भी न थी, कि कुछ लेकर खाता। इतने में एक जगह कई मजूरों को खाते पीते देख वह उनके पास जाकर खड़ा हो गया। उसे इस तरह सतृष्ण दृष्टिसे अपनी और देखते देखकर मजूरोंने पूछा —“भाई तू कौन है और कहांसे आ रहा है ?" धनपालने लजित हो कहा-“मैं यहां व्यापार करने आया था, किन्तु प्रमादके कारण मेरा सारा धन मेरे हाथसे निकल गया।” यह सुन मजूरोंने पूछा----"आज कुछ खाया पिया है या नहीं?" धनपालने कहा"क्या खाऊ और कहांसे खाऊ ? मेरे पास तो अब एक कानी कौड़ी भी नहीं है।” यह सुनकर मजूरोंको दया आयी और उन्होंने उसे खिलाया पिलाया। अब धनपाल इन्हीं मजूरोंके साथ घूमने लगा और मजूरी कर किसी तरह पेट भरने लगा। किसीने सच ही कहा है कि पेटके पीछे मनुष्य मानको छोड़ देता है, नीच मनुष्योंकी सेवा करता है, दीन वचन बोलता है, कृत्याकृत्य के विवेकको जलाञ्जलि दे देता है, सत्कारकी अपेक्षा नहीं करता और भांडपना एवम् नाचने तकका काम करता है। पेट वास्तवमें ऐसा ही है। इसके पीछे मनुष्य जो न करे वही थोड़ा है।
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy