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________________ २०६ * पार्श्वनाथ-चरित्र * और धूलिके समूहसे व्याप्त जीर्ण मकानोंमें कष्टपूर्वक रहते हैं। अनेक मनुष्य मिष्टान्न, पक्वान्न, खाते हैं, द्राक्षारसको पान करते हैं और कर्पूर मिश्रित ताम्बूल उपभोग करते हैं किन्तु अनेक मनुष्योंको एक शाम भरपेट भोजन भी नहीं मिलता । अनेक मनुष्य सुगन्धित पदार्थों के विलेपनसे विभूषित हो, दिव्य वाहनोंमें बैठ स्वजन स्नेहियोंके साथ नाना प्रकारको क्रीड़ा करते हैं और अनेक मनुष्य दीन-मलीन, धन-धान्य और स्वजनोंसे रहित नारकी जीवोंकी तरह दुःखमय जीवन व्यतीत करते हैं। अनेक मनुष्य मुलायम गद्दोंपर निद्राका आस्वादन करते हैं और सवेरे याचकोंकी जयध्वनिकेसाथ शैया त्याग करते हैं, किन्तु अनेक मनुष्य ऐसे भी हैं जो वन्य पशुओंके बीचमें किसी ऐसे स्थानमें सोते हैं, जहां उन्हें निद्रा भी उपलब्ध नहीं होती। यह सब शुभाशुभ कर्मोंका फल नहीं तो और क्या है ? धर्माधर्मका यह प्रत्यक्ष फल देखकर अनन्त सुखके लिये कष्ट साध्य धर्मको ही आराधना करनी चाहिये। तेरा यह कथन है कि कष्ट करनेसे सुख नहीं प्राप्त हो सकता–मिथ्या है। कड़वी औषधिके सेवन क्या आरोग्यकी प्राप्ति नहीं होती ? धर्ममें तत्पर रहनेवाले जीवोंको स्वर्गसे भी बढ़कर सुख प्राप्त होते हैं । धर्मके शासनसे ही संसारमें सब लोगों के हितार्थ सूर्य और चन्द्र उदय होते हैं। धर्म बन्धु रहितका बन्धु और मित्र रहितका मित्र है। धर्म अनाथका नाथ और संसारके लिये एक वत्सल रूप है। इसलिये निरन्तर धर्मकी ही उपासना करनी चाहिये। कहा भी है कि :
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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