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________________ * द्वितीय सर्ग * १९३ धनसारने वहां एक बड़ा जिनप्रासाद बनवाया । उसपर स्वर्ण कल और ध्वजायें स्थापित करायीं । अनेक जीर्णोद्धार कराये, साधर्मिक और स्वजनोंका सत्कार किया। साधुओंको वस्त्र और अन्नदान दिया और सातों क्षेत्रमें अपरिमित धन व्यय किया । इस प्रकार धन द्वारा धर्म और कोर्ति उपार्जन कर, अन्तमें अनशन किया और मृत्यु होनेपर सौधर्म : देवलोक में अरुणप्रभ नामक विमानमें चार पल्योपमकी आयुवाला देव हुआ । इस दृष्टान्तसे यह शिक्षा ग्रहण करना चाहिये, कि अत्यन्त लालच करनेसे प्राणीको दुःख और अनर्थकी प्राप्ति होती है, इसलिये मनमें अति लोलुपताका विचार भी न करना चाहिये । इस सम्बन्धमें भी एक दृष्टान्त मनन करने योग्य है । वह इस प्रकार है : एक कार्पोटिकको भिक्षामें थोड़ासा सत्तू मिला । उस सत्तूको एक घड़े में रख, वह शून्य देवकुलमें गया और वहां पैताने वह घड़ा रखकर सो रहा। रात्रिके समय नींद खुलनेपर वह अपने मनमें विचार करने लगा कि - " यह सत्तू बेंचकर इसके मूल्यसे एक बकरी लूंगा । बकरीके जब कई बच्चे होंगे, तब उन्हें बैंकर एक गाय लूँगा । गायके जब बछिया बछड़े होंगे, तब उन्हें बेंचकर एक भैंसको लूंगा । उस भैंसके बियानेपर उसे बेंचकर एक अच्छी सी घोड़ी लूंगा । उस घोड़ीके बढ़िया बछेड़ोंको बहुत अच्छे दाम में बेचूंगा। इससे जो धन इकठ्ठा होगा, उससे एक बहुत बढ़िया मकान बनवाऊंगा और कोई अच्छा सा व्यापार करूंगा । इसके १३
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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