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________________ १८२ * पाश्वनाथ चरित्र # डुब गयीं। दूसरी ओरसे उसे यह भी समाचार मिला, कि स्थल मार्गले जो गाड़ियां माल लेकर जा रही थीं, उन्हें डाकुओंने लूट लिया । इस प्रकार जल और स्थल दोनों स्थानका धन नष्ट हो गया। जो धन लेन-देन में लगाया था, वह भी लोगोंके दीवाले या बेईमानीके कारण अधिकांशमें नष्ट हो गया । चारों ओरसे इस प्रकार वज्रपात होनेके कारण धनसार पागल हो गया और धनका स्मरण करता हुआ शून्य वितसे सर्वत्र विचरण करने लगा । किसीने सच हो कहा है कि : "दानं भोगो नाथस्तिलो, गतयो भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति व भुंक, तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥" अर्थात् - "दान भाग और नाश- यही तीन धनकी गति है। जो धन दान नहीं दिया जाता है, न भोग किया जाता है, उसकी तीसरी गति अर्थात् नाश होता है।” किसीने यह भी बहुत ठीक कहा हैं कि : "कोटिका संचितं धार्न्य, मशिका संचित मधु । कृपयेः संचिता लक्ष्मी, रन्यै रेवोप भुज्यते ॥” अर्थात् - "चिउ 'टियोंने संचित किया हुआ धान्य, मक्षिकाओने संचित किया हुआ मधु और कृपणोंने संचित किया हुआ धन दूसरों हीके काम आता है - स्वयं कभी भी उसे उपभोग नहीं कर सकते।" : बहुत दिनोंतक इधर-उधर भ्रमण करनेके बाद जब धनसार का चित्त कुछ शान्त हुआ; तब वह विचार करने लगा कि “अब
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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