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________________ * द्वितीय सर्ग “गुरुदेव! हमलोग एकान्तमें-जहां कोई भी न देख सके ऐसे स्थानमें मुर्गेको मार आये । “गुरुने कहा-"और कोई नहीं तो कम-से-कम स्वयं तुम और विद्याधर आदि तो देखते थे। फिर भी, कोई नहीं देखता यह मानकर तुम लोगोंने अपने-अपने मुर्गेको मार डाला । धिक्कार हैं तुम्हें और धिक्कार है तुम्हारो इस समझ को!" इसके बाद क्षीरकदम्बक अपने मनमें सोचने लगे“मुनिने जो कहा है वह सत्य ही है। निःसन्देह इन दोनोंको नरक की प्राप्ति होगी। जब इनकी यही गति होनी बदी है, तो इन्हें पढ़ानेसे भो क्या लाभ ? इनको पढ़ाना-अन्धेको काच दिखाना, बधिरके सामने शंख बजाना, वनमें बैठकर रोना, पत्थरपर कमल रोपना यह सब क्षार भूमिमें जलवृष्टि होनेके समान है। कहा भी है कि जिन गुणोंके विद्यमान होनेपर भी अधोगति हो, उन गुणोंमें आग लगे, वैसा श्रुत पातालमें जाय, और वैसा चातुर्य विलय हो जाय; क्योंकि इससे उलटी हानिही होती है। जल वही जिससे तृषा. शान्त हो, अन्न वही, जिससे क्षुधा दूर हो, बन्धु वही जो दुःखमें सहायता करे और पुत्र वही जिससे पिताको निवृत्ति प्राप्त हो। सीखना और सुनना उसी श्रुतका सार्थक है, जिससे आत्मा नरकगामी न हो। शेष सभी विडम्बना रूप है। जब मेरा पुत्र पर्वत और राजपुत्र वसु-जिन्हें मैंने इतने प्रेमसे पढ़ाया है-नरकगामी होंगे तो मेरे गृहवाससे हो क्या लाभ ?" इस प्रकार सोचते हुए उन्हें वैराग्य हो आया और उन्होंने प्रवज्या अंगीकार कर ली ! इसके बाद उनका स्थान पर्वतको मिला।पर्वत शास्त्रोंकी
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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