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________________ * द्वितीय सगे ११५ अप्रत्याख्यान एक वर्षतक और अनन्तानुबन्धी जन्म पर्यन्त रहता है। इन चारों कषायोंके रूपको समझ कर इनका त्याग करना चाहिये। इन चारों कषायोंमें क्रोध बहुतहो भयंयर है । कहा भी हैं कि क्रोध विशेष सन्ताप कारक है, क्रोध वैरका कारण है, क्रोधही मनुष्यको दुर्गतिमें फंसा रखता है और क्रोध ही शम-सुखमें बाधा डालता है। इसलिये क्रोधका त्याग कर शिवसुख देनेवाले शमको भजो। यही मोक्षका देनेवाला है। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार द्राख, ईख, क्षीर और चीनी आदि बलिष्ट रस भी सन्निपात में दोषकी वृद्धि करते हैं, उसी प्रकार उपरोक कषायोंसे भी संसार की बृद्धि होती है। सिद्धान्तमें कहा गया है कि मर्म वचनसे एक दिनका तप नष्ट होता है, आक्षेपं करनेसे एक मासका तप नष्ट होता है, श्राप देनेसे एक वर्षका तप नष्ट होता है और हिंसाकी ओर अग्रसर होनेसे समस्त तप नष्ट हो जाता है। जो मनुष्य क्षमा रूपी खड्गसे क्रोधरूपी शत्रुका नाश करता है, उसीको सात्विक, विद्वान्, तपस्वी और जितेन्द्रिय समझना चाहिये।" मुनिराजके इस धर्मोपदेशका सर्वङ्गिल राक्षसपर बड़ा ही प्रभाव पड़ा। उसने कहा-"भगवन् ! कुमारके प्रताप और आपके उपदेशसे प्रभावित होकर मैं प्रतिज्ञा करता हूँ, कि अब मैं कभी किसीपर क्रोध न करूँगा।” सर्वगिल जिस समय यह प्रतिज्ञा कर रहा था, उसी समय एक हाथी चिग्घाड़ता हुआ वहाँ आ पहुँचा। यह देख सब लोग घबरा गये; किन्तु हाथीने किसीको किसी प्रकारकी हानि न पहुँचायी। उसने प्रथम मुनिराजको
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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