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________________ प्रथम सर्ग थी। देवदत्तके हाथमें पानीका लोटा देखकर, न रहा गया और उसने गिड़गिड़ा कर पानी माँगा। देवदत्त बड़ा ही दयालु मनुष्य था । अतः उसने तुरत वह पानी लकड़हारेको पिला दिया। इससे लकड़हारेको बड़ी शान्ति मिली। इसके बाद स्वस्थ होनेपर उसने अपने कपड़ेसे वह नली निकालकर देवदत्तको दिखाया, उस नली पर धनदत्तका नाम लिखा हुआ था। उसे देखते ही देवदत्तने लकड़हारेसे पूछा--"भाई ! यह नली तुने कहाँ पायी ?" ___लकड़हारेने तुरत सब सञ्चा हाल देवदत्तको बतला दिया। अन्तमें उसने कहा, "मैं समझता था कि शायद इसमें कुछ रुपये पैसे होंगे, इसीलिये मैं इसे चुराकर खोद लाया ; पर मेरा ऐसा भाग्यही कहाँ कि इसप्रकार अनायास मुझे धन मिल जाय, घर आकर देखा तो नलीमें यह काँच निकले। मैं चाहता हूँ कि किसीको इनकी आवश्यकता हो, तो इन्हें दे दूं और इनके बदले में कुछ मिल जाय तो लेखू। लकड़हारेकी बातें सुन देवदत्तको बड़ाही आनन्द हुआ। उसने तुरत उसे कुछ धन देकर वह रत्ननोंकी नली ले ली। लकड़हारे को अशातीत धनकी प्राप्ति हुई, इसलिये वह खुशी मनाता शहरकी ओर चला। उधर देवदत्तका हृदय भी मारे आनन्दके बल्लियों उछल रहा था। उसे इन रत्नोंकी प्राप्तिके कारण उतना आनन्द न होता था, जितना भाईका पता पानेके कारण । लकड़हारेने जिस पीपलका पत्ता बताया था, उसकी ओर वह लपका। उसे यह न मालूम था कि धनदत्त उस नलीको वहाँ गाड़कर कहाँ
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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