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________________ * प्रथम सर्ग * ६६ इधर उस हाथीने श्रावक होकर समभावकी भावना करते, जीवोंपर दया दिखलाते, छट्ट आदि तप करते, सूर्यको किरणोंसे गरम बने हुए अचित्त जलका पान और सुखे पत्तोंका पारण करते हुए हाथियोंके साथ क्रीड़ा करनेसे मनको हटाये हुए विरक्त होकर विचार करने लगा, – “अहा ! जिन्होंने मनुष्य-भव प्राप्त कर दीक्षा अवलम्बनकी, वे भी धन्य हैं । गत भवमें मनुष्यका जन्म पाकर भी मैं उसे मुफ्त खो बैठा। अब मैं क्या करूँ ? इस समय तो मैं पशु हूँ।" ऐसी भावना करते और जैसे-तैसे जङ्गली भोजनसे पेट भरते, राग-द्वेषसे दूर रहते और सुख-दुःखमें समभाव रखते हुए वह गजेन्द्र अपना समय बिताने लगा । इधर कमठ, क्रोधमें आकर मरुभूतिको मारडालनेके कारण गुरुसे फटकार और अन्य तापसोंसे निन्दा पाकर, आर्त्तध्यानके वश हो मरणको प्राप्त हुआ और कुर्कट-जातिका उड़नेवाला सांप हुआ । वह इतना भयङ्कर हुआ कि जंगलमें आने-जानेवाले उसे देखकर ही डरने लगे। वह दाँत, पक्ष-विक्षेप, नख और चंचुके द्वारा यमकी भाँति जन्तुओंका संहार किया करता था । एक दिन उस सर्पने सूर्यकी गरमीसे सूखते हुए कण्ठवाले गजराजको उसी सरोवरमें पानी पीनेके लिये आते देखा । वह साँप वहाँ पहलेसे ही मौजूद था। देवयोगसे पानी पीते-पीते वह हाथी कीचड़में फँस गया और मारे गरमीके शरीर अशक्त होनेके कारण उसमेंसे निकल न सका । उसी समय उस साँपने उसके कुम्भस्थलपर डॅस दिया । सारे शरीर में तुरत ही ज़हर फैल
SR No.023182
Book TitleParshwanath Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Jain Pt
PublisherKashinath Jain Pt
Publication Year1929
Total Pages608
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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