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________________ (७७८) ज्ञान अप्रमाणित होता है. सुननेमें आता है कि, किसी समय दुष्पमकालवश बारह वर्ष तक दुर्भिक्ष रहा, जिससे तथा अन्य भी कारणोंसे सिद्धान्त उच्छिन्न प्रायः हुए देखकर भगवान् नागार्जुन, स्कंदिलाचार्यआदि लोगोंने उसे पुस्तकारूढ किया. इसलिये सिद्धान्तको सन्मान देनेवाले मनुष्यने उसे पुस्तकमें लिखवाना तथा रेशमीवस्त्रआदि वस्तुसे उसकी पूजा करना चाहिये. सुनते हैं कि, पेथड श्रेष्ठिने सात करोड तथा वस्तुपालमन्त्रीने अट्ठारह करोड द्रव्य खर्च करके तीन ज्ञानभांडार लिखवाये थे. थरादके संघवी आभूने तीन करोड टंक व्यय करके सर्व आगमकी एक एक प्रति सुवर्णमय अक्षरसे और अन्य सर्वग्रन्थोंकी एक एक प्रति स्याहीसे लिखाई थी. ग्यारहवां द्वार पौषधशाला अर्थात् श्रावकआदिको पौषध लेनेके लिये उपयोगमें आने योग्य साधारण स्थान भी पहिले कही हुई घर बनानेकी विधिके अनुसार बनवाना चाहिये. साधर्मियोंके लिये कराई हुई उक्त पौषधशाला सुव्यवस्थावाली और निरवद्य योग्य स्थान होनेसे समय पर साधुओंको भी उपाश्रयरूपमें देना चाहिये. कारण कि, ऐसा करने में बहुतही पुण्य है. कहा है कि-जो मनुष्य तपस्या तथा अन्य भी बहुतसे नियम पालनेवाले साधुमुनिराजोंको उपाश्रय देता है, उसने मानो वस्त्र, अन्न, पान, शयन, आसनआदि सर्व वस्तुएं मुनिराजको दी
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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