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प्रातःकाल होते ही श्रीश्रुतसागरसैि
जय भा
सिंह मंत्री, रानियां तथा संघके अन्य सब लोग परस्पर स्वमकी चर्चा करने लगे । सबके स्त्रम एक समान मिले, तब सब लोग आगे बढे, और स्वप्नके अनुसार वहीं शत्रुंजय तीर्थको देखकर बहुत प्रसन्न हुए । सबने श्री ऋषभदेव भगवानकी वंदना पूर्वक पूजा करके अपना अभिग्रह पूर्ण किया। उस समय श्रीभगवानके दर्शन के उत्पन्न हुए हर्षसे उनका शरीर पुलकायमान हो गया तथा सुकृतरूपमें उनकी आत्मा निमग्न हो गई। तत्पश्चात् सबने स्नात्र पूजा करी, ध्वजा चढाई, माला पहिराई तथा अन्य धर्मकृत्य करके वहांसे विदा हुए ।
राजा वहांसे चला तो सही किन्तु भगवानकी गुणरूप मोहिनी से आकर्षित होकर पुनः वन्दना करनेको फिरा । इस भांति मानो सात नरकरूप दुर्गतिमें पडने से आत्माका रक्षण करनेके हेतु सात बार मार्ग चला और सात बार भगवानको वन्दना करने के लिये वापस लौटा। यह देखकर सिंहमंत्रीने राजासे प्रश्न किया कि, "हे महाराज ! यह क्या है ?" राजाने उत्तर दिया कि -- बालक जिस भांति माताको नहीं छोड़ सकता वैसे ही मैं इस तीर्थराजको नहीं छोड सकता, अतएव मेरे यहीं रहने के लिये एक उत्तम नगरकी रचना कर, " सच है ऐसा मनवांछित स्थान कौन बुद्धिमान छोड सकता है ?
बुद्धिमान मंत्रीने अपने स्वामीकी आज्ञा पाते ही वास्तुक