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है, वर्तमानके जीव क्षुद्रबुद्धि हैं. इसलिये ऐसा कुछ तो भी सीखना चाहिये कि जो थोडा हो, और इष्टकार्य साध सके उतना हो. इसलोकमें उत्पन्न हुए मनुष्यने दो बातें अवश्य सीखना चाहिये. एक तो वह कि, जिससे अपना निर्वाह होय,
और दूसरी वह कि, जिससे मरनेके अनन्तर सद्गति प्राप्त हो. निंद्य और पापमय कार्यसे निर्वाह करना अनुचित है. मूलगाथामें 'उचित' पद है, इसलिये निंद्य तथा पापमय व्यापारका निषेध हुआ ऐसा समझना चाहिये. तृतीय द्वार- पाणिग्रहण याने विवाह, यह भी त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ और कामकी सिद्धिका कारण है, इसलिये योग्यरीतिसे करना चाहिये. विवाह अपनेसे पृथक्गोत्रमें उत्पन्न तथा कुल, सदाचार, शील, रूप, वय, विद्या, संपत्ति, वेष, भाषा, प्रतिष्ठाआदिसे अपनी समानताके हों उन्हीं के साथ करना चाहिये. शीलआदि समान न हों तो,परस्पर अवहेलना,कुटुम्बमें कलह,कलंक इत्यादिक होते हैं. जैसेकि पोतनपुरनगरमें श्रीमतीनामक एक श्रावककन्याने सादर किसी अन्यधर्मावलंबी पुरुषके साथ विवाह किया था. वह धर्ममें बहुत ही दृढ थी. परन्तु उसके पतिका परधर्मी होनेसे उसपर अनुराग नहीं रहा. एक समय पतिने घरके अंदर एकपडे में सर्प रखकर श्रीमतकिो कहा कि, अमुक घडेमेंसे पुष्पमाला निकाल ला. जब श्रीमती लेने गई तो नव