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________________ (६८६) असह्य शीत, उष्णता और पवनकी पीडा सही, परंतु तपस्या नहीं करी; अहर्निशि मनमें धनका चिन्तवन किया, परंतु प्राणायाम ( ध्यान ) करके मुक्तिपदका चितवन नहीं किया, सारांश यह कि, हमने ऐसा किया जैसा कि मुनि परंहम उस फलसे न मिले। दिनरातमें दिनको एक बार भोजन करे, तो भी पच्चखान किये बिना एकाशनका फल नहीं मिलता । लोकमें भी ऐसी ही राति है कि, कोई मनुष्य किसीका बहुतसा द्रव्य बहुत काल तक वापरे, तो भी कहे बिना उक्त द्रव्यका स्वल्प भी ब्याज नहीं मिलता। अप्राप्यवस्तुका नियम ग्रहण किया होवे तो, कदाचित् किसी प्रकार उस वस्तुका योग आजाय तो भी नियम लेनेवाला मनुष्य उसे नहीं ले सक्ता, और नियम नहीं लिया होवे तो ले सक्ता है। इस प्रकार अप्राप्यवस्तुका नियम ग्रहण करने में भी प्रत्यक्ष फल दीखता है। जैसे पल्लीपति वंकचूलको गुरुमहाराजने यह नियम दिया था कि "अजाने फल भक्षण न करना " जिससे अत्यंत क्षुधातुर होनेपर भी तथा लोगोंने बहुत आग्रह किया तो भी वनमें लगे हुए किंपाकफल अजाने होनेसे उसने भक्षण नहीं किये । उसके साथियोंने खाये, और वे मरगये। प्रत्येक चातुर्मासमें नियम लेने का कहा, उसमें चातुर्मास यह उपलक्षण जानो । उससे पक्ष ( पखवाडे ) के अथवा एक, दो तीन मासके तथा एक दो या अधिक वर्षके भी नियम
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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