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तब उसने अपना नियम कह सुनाया, जिससे राजा क्रुद्ध होगया. परन्तु इतनेही में एक सरीखी धाराबंध वृष्टि होने लगी जिससे उसने सुखपूर्वक अपने नियमका पालन किया.
इस प्रकार पर्वका नियम अखंडित पालने से वे तीनों व्यक्ति क्रमशः मृत्युको प्राप्त होकर छट्ठे लांतकदेवलोक में चौदह सागरोपम आयुष्पवाले देवता हुए. धनेश्वरश्रेष्ठी समाधि मृत्यु पाकर बारहवें अच्युतदेवलोकको गया. उन चारों देवताओंकी बडी मित्रता होगई, श्रेष्ठीका जीव जो देवता हुआ था, उसके पास अन्य तीनों देवताओंने अपने च्यवन के अवसर पर स्वीकार कराया था कि- " तूनें पूर्वभवकी भांति आगन्तुकभवमें भी हमको प्रतिबोध करना. " पश्चात् वे तीनों पृथक् पृथक् राजकुलोंमें अवतरे. अनुक्रमसे तरुणावस्थाको प्राप्त हो बडे २ देशों के अधिपति हो धीर, वीर, और हार इन नामोंसे जगत् में प्रसिद्ध हुए. धीरराजाके नगर में एक श्रेष्ठीको सदैव पर्वके दिन परि पूर्ण लाभ हुआ करता था, परन्तु कभी २ पर्वतिथि में हानि भी बहुत होती थी. उसने एक समय ज्ञानीको यह बात पूछी. ज्ञानीने कहा- " तूनें पूर्वभव में दरिद्रावस्था में स्वीकार किये हुए नियमोंको दृढतापूर्वक यथाशक्ति पर्वके दिन सम्यक्प्रकार से पालन किये. परन्तु एक समय धर्मसामग्रीका योग होते भी तू धर्मानुष्ठान करनेमें आलस्य आदि दोषसे प्रमादी हुआ. उसीसे इसभव में तुझे इस प्रकार लाभ हानि होती है. कहा