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काम! जानामि ते मूलं, संकल्पात् किल जायसे | तमेव न करिष्यामि प्रभविष्यसि मे कुतः १ ॥ १ ॥
हे कामदेव ! मैं तेरी जड जानता हूं. तू विषयसंकल्प से उत्पन्न होता है. इसलिये मैं विषयसंकल्पही न करूं. जिससे तू मेरे चित्तमें उत्पन्नही न होगा. इस विषय में स्वयं नई विवाहित आठ श्रेष्ठिकन्याओको प्रतिबोध करनेवाले और निन्यानवे करोड स्वर्णमुद्रा बराबर धनका त्याग करनेवाले श्रीजम्बूस्वामीका, कोशावेश्या में आसक्त हो साढ़े बारह करोड स्वर्णमुद्राएं व्ययकर कामविलास करनेवाले तत्काल दीक्षा ले कोशा के महलही में चातुर्मास रहनेवाले श्रीस्थूलभद्रस्वामीका तथा अभयारानीके किये हुए नानाविधि अनुकूल तथा प्रतिकूल उपसर्गसे मन में लेशमात्र भी विकार न पानेवाले सुदर्शन श्रेष्ठ आदिका दृष्टान्त प्रसिद्ध है; इसलिये उनके सविस्तार कहने की आवश्यकता नहीं.
कषाय आदि दोषों पर जय — उन दोषोंकी मनमें उलटी भावना आदि करने से होता है. जैसे क्रोध पर जय क्षमासे, मान पर निरभिमानपनसे, माया पर सरलतासे, लोभ पर सन्तोष से, राग पर वैराग्य से, द्वेष पर मित्रतासे, मोह पर विवेकसे, काम पर स्त्रीके शरीर ऊपर अशुचिभावना करनेसे, मत्सर पर दूसरोंकी बढी हुई संपदा देखने में आवे तो भी डाह न रखनेसे, विषय पर इंद्रियदमनसे, मन, वचन, कायाके अशुभ योग पर त्रिगुप्ति